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क्योंकि वे शिरके ऊपर निकले रहते है। उपर्युक्त निर्वचन सींगके विभिन्न अर्थमें किए गए है। यास्कके इन निर्वचनोंमें चार धातुओंका योग देखा जाता हैप्रथम निर्वचनमें श्रिञ् सेवायाम् धातुका, द्वितीयमें हिंसार्थक शृ का, तृतीयमें उप शमनार्थक शम्, का एवं चतुर्थ तथा पंचममें गम् धातुका । अर्थात्मक दृष्टिकोणसे उपर्युक्त सभी निर्वचन उपयुक्त हैं। शृ धातुसे निष्पन्न शृंगम् शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टिसे समीचीन मालूम पड़ता है। शृंग शब्दके शिखर आदि अर्थ सादृश्य आदिके आधार पर होते है । व्याकरणके अनुसार इसे शृ हिंसायाम्, धातुसे गन् 143 प्रत्यय कर बनाया जा सकता है । यास्कका द्वितीय निर्वचन भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे पूर्ण उपयुक्त है ।
(69) पाद :• पादके अर्थ पैर आदि होते है। 44 यास्क इस शब्दमें पद् गौ धातुका योग मानते है - पद्यते : 145 पद् गतौ का योग होनेके कारण कहा जा सकता है - शरीर धारी इससे चलते है इसलिए पाद कहा जाता है यह निर्वचन आख्यातज सिद्धान्त पर आधारित है । भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे यह सर्वथा उपयुक्त है। पशुपाद प्रकृतिके कारण सिक्के आदिके भाग भी पाद कहलाते है। सिक्केक्रे भागकी समानताचे कारण श्लोक आदिके भागको भी पाद कहा जाता है - पशुपादप्रकृतिः प्रभागपादः । प्रभागपादसामान्यादितराणि पदानि 145 | सादृश्यके आधार पर विभिन्न नामकरण हुए हैं इस सिद्धान्तकी पुष्टि इसके माध्यम से होती है। व्याकरणके अनुसार इसे पद् गतौ धातुसे धञ्“ प्रत्यय कर बनाया जा सकता है।
(70) निऋति :- - इसका अर्थ निरुक्तमें पृथिवी है । निस्मणात् 145 इसके 'अनुसार निऋतिः शब्दमें रमु क्रीडायाम् धातुका योग है - नि+रम् -1 - निऋतिः । क्योंकि इसमें रहते हुए प्राणी रमण करते है। निऋतिका अर्थ दृःख भी होता है
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· ऋच्छतेः कृच्छापत्तिरितरा 147 इसके अनुसार यह शब्द दुःखवाचक ऋच्छ् धातुसे बनता है । ऋ गतौ धातुसे ऋति बनाया जा सकता है जिसका अर्थ होता है सन्मार्ग । इसमें निर् उपसर्ग मानना भाषा विज्ञानके अनुकूल होगा । निर्र्को भाषा विज्ञानके शब्दोंमें पूर्व प्रत्यय कहा जायगा । रमु क्रीडायाम् धातुसे भी इसका निर्वचन माना जा सकता है। लेकिन इससे ध्वन्यात्मक संगति पूर्ण नहीं होगी । डा० वर्माके अनुसार व्यंजनगत उदासीनताके कारण यह निर्वचन पूर्ण उपयुक्त नहीं है । 148 यास्क द्वारा दिए गए निर्वचनों में प्रथम १६५ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क