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सिद्धान्तकी अनुकूलता प्रतिलक्षित होती है । यास्कके अन्य निर्वचन लोकप्रिय व्युत्पत्ति पर आधारित हैं। इन निर्वचनोंसे पता चलता है कि यास्कके समयमें
स्वर्णका व्यापक प्रयोग होता था तथा उस समय भी यह महार्घ था। यास्कके अन्तिम निर्वचन, सोनेके प्रति व्यक्तियोंकी असक्तिका सूचक है । व्याकरणके अनुसार इसे हर्य् गतिकान्त्योः धातुसे कन्यन् 153 प्रत्यय कर बनाया जा सकता है ।
(74) अन्तरिक्षम् :- इसका अर्थ आकाश होता है । (1) अन्तराक्षान्तं भवत्यन्तरेमे इति वा अर्थात् यह द्युलोक तथा पृथ्वी लोकके मध्यमें है एवं पृथ्वी तक अवस्थित है। इसके अनुसार अन्तर् + क्षाका योग इस शब्दमें प्राप्त होता है। (2) शरीरेष्वन्तरक्षयमिति वा '4 अर्थात् शरीरके अन्दर यहीं एक अविनश्वर है । इसके अनुसार अन्तर + क्षि धातुका योग इसमें प्राप्त होता है । अन्तरिक्षका प्रयोग वैदिक भाषामें वाहुल्येन हुआ है । अन्तर, ध्वर, प्रातर् आदि अव्ययमें परिगणित हैं इसलिए अन्तर निपातपूर्वक ईक्ष् धातुसे यह शब्द बनाना अच्छा होगा । डा० वर्मा इस निर्वचनको पूर्ण स्पष्ट नहीं मानते हैं ।'' यास्कके प्रथम निर्वचनमें ध्वन्यात्मक संगति है अर्थात्मकता दृश्यानुकूल है। द्वितीय निर्वचन पूर्ण संगत नहीं है। व्याकरणके अनुसार इसे ईश् दर्शने धातुसे कर्मणि घञ् प्रत्यय कर अन्तर + ईक्ष् + घञ् - अन्तरीक्षम् बनाया जा सकता है। (धावापृथिव्योरन्तरीक्ष्यते ) 156
(75) समुद्र :- समुद्रका अर्थ सागर होता है। यास्क इसके कई निर्वचन प्रस्तुत करते हैं - (1) समुद्रवन्त्यस्मादाप: 17 अर्थात् इससे जल समुद्रवित होते हैं। इसके अनुसार समुद्र शब्दमें सम् + उ + द्रु गतौ धातुका योग है। (2) समभिद्रवन्ति एनामाप: 157 अर्थात् जल एकत्र होकर इसे प्राप्त करते है । छोटी छोटी नदियां बड़ी नदीमें तथा बड़ी नदी समुद्रमें मिलती है। इसके अनुसार इसमें सम् + अभि + द्रु धातुका योग है ( 3 ) सम्मोदन्तेडस्मिन्भूतानि अर्थात् इसमें सभी जलचर प्राणी प्रसन्न रहते है। इसके अनुसार समुद्रशब्दमें सम् + मुद् हर्षे धातुका योग है। (4) समुदको भवति अर्थात् यह प्रचुरजलसे सम्पन्न होता है। इसके अनुसार सम् + उदकसे समुद्र बना है। (5) समुनत्तीतिवा 157 अर्थात् यह आर्द्र करता रहता है। इसके अनुसार इसमें सम् + उन्दी क्लेदने
१६७ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क