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(78) पुत्र :- इसका अर्थ आत्मज होता है। निरुक्तमें इसके कई निर्वचन प्राप्त होते है-(1) पुरु त्रायते अर्थात् बहुत अधिक किए गए पापोंसे पिताकी रक्षा करता है। इसके अनुसार पुरु+त्रै पालने धातुका योग है। पुरुकाअर्थ होता है बहुत अधिक । पुरुकाअवशिष्ट पुत्र-पुत्र । (2) निरपणात् वाअर्थात् वह निरपन पिण्ड दान क्रियासे पितरोंको तृप्त करने वाला होता है। इसके अनुसार इसमें पृधातुका योग है। (3) पुन्नरकं ततस्त्रायत इतिवा'67 अर्थात् पुम् नरकसे यह पिताको वचाने वाला होता है। इसके अनुसार इसमें पुम् +त्रै पालने धातुका योग है। पुत्+त्र। यास्कका प्रथम एवं द्वितीय निर्वचन अर्थात्मक महत्त्व रखता है। प्रथम निर्वचन-पुरु+त्रायतेसे पुत्र द्वारा सम्पादित वृद्धावस्थामें माता पिताकी सेवा द्योतित होती है। द्वितीय निर्वचन सांस्कृतिक आधारसे युक्त है। वैदिक संस्कृतिमें पिण्डदानादिसे पितरोंकी तृप्ति सर्वमान्य एवंधर्मशास्त्रानुमोदित है। यास्कके अंतिम निर्वचनकाध्वन्यात्मक एवंअर्थात्मक आधार उपयुक्त है। अतःभाषा विज्ञानके अनुसार यही निर्वचन संगत है।अमर कोषकी रामाश्रमी टीका एवं मनुस्मृतिमें भी इसी प्रकारके निर्वचन प्राप्त होते है। व्याकरणके अनुसार इसे पुम् + त्रै+ कः प्रत्यय कर बनाया जा सकता है।
(79) ऋषि:- इसका अर्थ होता है- मन्त्र द्रष्टा। निरुक्तमें मन्त्रदर्शन अर्थसे सम्बद्ध इसका निर्वचन प्राप्त होता है-ऋषिःदर्शनात् अर्थात् दर्शन करनेके कारण ऋषि कहा जाता है क्योंकि उसने मन्त्रोंका दर्शन किया या वे सूक्ष्म अर्थोको भी देखते है। यास्क आचार्य औपमन्यवके सिद्धान्तका भी उल्लेख इस अवसर पर करते है। स्तोमान् ददशेत्यौपमन्यवः अर्थात् औपमन्यवके अनुसार ऋषियोंने मंत्रोंका दर्शन कियाइसलिए ऋषि कहलाये। इसके अनुसार ऋषि शब्दमें दृश् दर्शने धातुका योग है। दृशिं शब्द ही घिसतेघिसते ऋषि बन गया ऐसा प्रतीत होता है।मन्त्र दर्शनसे ऋषि बननेका प्रमाण ब्राह्मण ग्रन्थसे प्राप्त होता है -तद्यदेनांस्तपस्यमानान ब्रह्म स्वयम्भवम्यानर्षत ऋषयोऽभवस्तदृषीणामृषित्वम् इति विज्ञायते" अर्थात् तपस्या करते हुए इन ऋषियोंको वेदप्रकट हुआ इसीलिए ऋषि कहलाये, यही ऋषियोंका ऋषित्व है। डा0 वर्माके अनुसार ध्वन्यात्मक आधार पर तो यह उपयुक्त है लेकिन अर्थात्मक आधार से अनुपयुक्त है। लेकिन डा0
१६९: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क