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- चर्मन्- चर्म । इसके अनुसार इसका अर्थ होगा जो सम्पूर्ण शरीरसे उधेड़ा जाता है। मृगचर्म, व्याघ्रचर्म, गजचर्म आदि इसी आधार पर संगत हैं । यास्कका प्रथम निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोण से उपयुक्त है। द्वितीय निर्वचनमें अर्थात्मक आधार है। घृत् + मन् से ध्वन्यात्मक आधार पर चर्मन् होना चाहिए था।18 भाषा विज्ञानके अनुसार प्रथम निर्वचन सर्वथा उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार यह चर् गतौ धातुसे मनिन्' प्रत्यय करने पर बनता है।
(62) वृक्ष :- इसका अर्थ पेड़ होता है। यास्क इसके लिए दो निर्वचन प्रस्तुत करते है (1) वृक्षोख्रश्चनात्17 इसके अनुसार वृक्ष शब्दमें वश्च छेदने धातुका योग है। छेदन क्रिया होनेके कारण वृक्ष कहलाता है क्योंकि वृक्षको काटा जाता है-व्रश्च+सः- वृक्षः वृक् + स्:- वृक्षः । (2) वृत्वा क्षां तिष्ठतीतिवा अर्थात् वृक्ष पृथिवीको घेर कर ठहरता है। इसमें वृ+ (क्षां)130 का क्ष है। द्वादश अध्यायमें वृतक्षमः से वृक्षः माना गया है- पुण्यात्माओंके द्वारा जो निवास वरण किया जाए वह वृक्ष है। वृक्षोंके नीचे ऋषियोंका निवास रहता होगा 39 यह निर्वचन भाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोणसे उपयुक्त है। दोनों निर्वचनोमेंध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक संगति है। व्याकरणके अनुसार इसे वृक्ष वरणे धातुसे अच्132 प्रत्यय करने पर बनाया जा सकता है। वृक्ष + अच् – वृक्षः । या आवश्चू छेदने धातु+ सक् कर वृक्षः बनायाजा सकता है।
(63) क्षा :- इसका अर्थ पृथ्वी होता है। क्षा शब्द क्षि निवासे धातुके योगसे निष्पन्न होता है क्योंकि इस पर सभी निवास करते है - क्षा क्षियन्ते निवास कर्मण: इस निर्वचनका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे इसे सर्वथा संगत माना जायगा।
(64) अमीमयत् :- अमीमयत् शब्द करता है। इसे यास्क मीमयति शब्द कर्मा कह कर स्पष्ट करते है। इसमें शब्द करना अर्थवाले मी धातुका योग है। भाषा विज्ञानके अनुसार यह उपयुक्त है। इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार संगत है।
(65) वय :- वि का अर्थ पक्षी होता हे। वयः शब्द वि का ही वहुवचन रूप है। निरुक्तके अनुसार - वेतेर्गतिकर्मण:134 अर्थात् वि शब्द गत्यर्थक वी धातुके योगसे निष्पन्न होता है। पक्षी गमन क्रियासे युक्त है। भाषा विज्ञान के
१६३: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क