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को महाप्राणीकरण कहा जाता है। मद् तृप्तौ धातुसे निष्पन्न मधु,२५ स्यन्द प्रस्त्रवणे धातुसे निष्पन्न सिन्धु शब्द२६ में द अल्पप्राण की जगह ध महाप्राणमें परिवर्तन देखा जाता है। इसी प्रकार ग्रस् धातुसे निष्पन्न घंस२७ तथा स्कन्द से निष्पन्न स्कन्ध२८ शब्दमें भी महाप्राणीकरण ही है।
महाप्राण वर्णके स्थानमें महाप्राण वर्णका तथा अल्पप्राण वर्णके स्थान में अल्पप्राण वर्णका भी परिवर्तन होता है। जैसे ओध: मेधः में ह महाप्राणके स्थान पर महाप्राण ध का तथा वाधः, गाधः, वधूः शब्दों में महाप्राण ह के स्थान में महाप्राण ध का वर्ण परिवर्तन स्पष्ट है।२९ इसी प्रकार वच् धातुसे निष्पन्न वाक् शब्दमें च अल्पप्राण की जगह क अल्पप्राण का परिवर्तन यास्कको भी मान्य है।३०
रलयोरमेद: के अनुसार र वर्णके स्थानमें ल तथा ल वर्ण के स्थान में र का परिवर्तन वैदिक कालसे ही देखा जाता है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे भी यह सिद्धान्त मान्य है तथा क्षेत्रीय भाषाओंमें इस प्रकारके परिवर्तन बहुत देखे जाते हैं। निरुक्त में भी यास्कने इस प्रकारके शब्दोंका प्रयोग किया है। उरूकर शब्दसे निष्पन्न उलूखल,३१ कपिरिव जीर्ण: कफिजीर्ण से कपिंजल,३२ पुरूकामसे पुलुकाम,३३ भृ भरणे धातुसे विल्च,३४ अश्रिमत् से अश्लील५ आदि शब्दोंमें र वर्णके स्थान पर ल वर्णका परिवर्तन तथा बालवन्तम् से वारवन्तम्३६ एवं लिहन्ति से रिहन्ति३७ आदि शब्दोंमें ल के स्थान में र वर्णका परिवर्तन देखा जाता है।
यास्क द्वारा ढ वर्ण से र वर्णकी उद्भावना भी स्वीकृत है। अमूढः एवं मूढः शब्दों के क्रमश: अमूरः एवं मूर३८ शब्दोंका प्रदर्शन कर ढ वर्ण से र वर्णके विकासको यास्क ने स्पष्ट किया है।
मूर्धन्योष्म वर्ण ष का तालंयोष्म वर्ण श में परिवर्तन प्रायः देखा जाता है। क्षेत्रीय नषाओंमें तो इसके प्रचुर उदाहरण प्राप्त होते हैं। निरुक्तमें भी कृष् धातु से निष्पन्न कशा३९ तथा कुष् धातुसे निष्पन्न कोश शब्दका प्रयोग प्राप्त होता है जिनमें भन्योष्म वर्ण की तालव्योष्मवर्णता देखी जाती है।
वर्ण भी ध्वन्यन्तरता को प्राप्त करता है। ऋ वर्ण भारतके विभिन्न भागोंमें ध्वन्यन्तरता को प्राप्त है।संस्कृतका उच्चारण मध्यभारतमें संस्क्रित उत्तर भारत में संस्क्रत तथा दक्षिण भारत में संस्क्रुत के ऐसा हैास्पष्टहै ऋ का उच्चारणकहीं अ.कहीं इ तथा कहीं उध्वनिसे समन्वित है। निरुक्त शास्त्रमें भी क्र वर्णका विकास मूलरूपमें
९८ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क