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राजन्-अ -आ-राजा। उपधा विकारको भाषा विज्ञानके शब्दोंमें स्वर दीर्धीकरण भी कह सकते हैं। यह निर्वचन ध्वन्यात्मक महत्त्वसे युक्त है। प्रकृति रंजनसे भी राजा कहलाता है।" राज़, रंज एवं रज् इन तीनों धातुओंसे राजा शब्द बन सकता है क्योंकि इन तीनों धातुओंमें कोई विशिष्ट भेद नहीं है। रज् धातुका ही वृद्धिगत रूप राज्धातु है जिससे राजा शब्द बनता है। व्याकरणके अनुसार इसे राज दीप्तौ धातुसे कनिन् प्रत्यय करने पर बनाया जा सकता है। लैटिन की पहव शब्द इसीके समान है जिसका अर्थ होता है निर्देश करना।
(10) दण्डी :- इसका अर्थ संन्यासी होता है। इसका शाब्दिक अर्थ होता हैदण्डधारण करने वाला। यह शब्द दण्डिन शब्दके प्रथमा एक वचनका रूप है दण्डिन् शब्दके उपधामें परिवर्तन हो जानेसे दण्डी शब्द बनता है। उपधा विकार प्रदर्शनमें ही इस शब्दको भी उपस्थापित किया गया है।” दण्डिन् शब्दमें डि स्थित 'इ' उपधा है। इस उपधा इ का दीर्धीकरण परिवर्तन कहा जयगा |भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे यह उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसारभी दण्डिन् शब्दमें इकाई उपयुक्त है। भारतीय सस्कृतिमें संन्यास ग्रहण करने वालाको दण्डधारण करना पड़ता है।
(11) तत्त्वायामि :- इसका पूर्ण रूप 'तत् त्वां याचामि है। मै तुझसे उसकी याचना करता हूँ इस अर्थमें तत्त्वायामि का प्रयोग होता है। तत्त्वा याचामि-चलोप-यामि-याचामि वैदिक प्रयोग है। लौकिक संस्कृतमें याच् धातुका रूपयाचे होता है। वर्णलोप भाषा विज्ञान के अनुकूल है। इसमें वन्यातमकता सुरक्षित है। तत्. एवं त्वाम्के क्रमशः त् एवं म् वर्णका भी लोप देखा जाता है वर्ण लोपके प्रसंगमें इस शब्दको उपस्थापित किया गया है। यास्क यहां याचामिकेच का लोप दिखलानाही अभीष्ट समझते हैं। याचामिसे यामिमें दो वर्णोका लोप देखा जाता है च एवं आ का | भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे इसे प्रयत्न लाधवका परिणाम कहा जायगा। प्रयत्न लाधव की प्रवृत्ति प्रायः भाषाओंमें देखी जाती है। यामिशब्दको या धातुसे भी निष्पन्न माना जा सकता है। प्रयोग में धात्वर्थ भिन्न हो गये है।
(12) तृच :- इसका अर्थ होता है तीन ऋचाएं । यह शब्द त्रि+ऋच शब्दोंके योगसे बना है (तिम्रः ऋचः तृचः) त्रि स्थित र एवं इ का लोप हो गया
१४५: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क