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है।24 त्र्इ-त+ऋचः- तृचः । दुर्गाचार्य ने अपने दुर्गभाष्यमें त्रि का तृ सम्प्रसारण के द्वारा माना है और ऋ का लोप बतलाया है। ॠ में रेफ भी समाविष्ट है। 25 अतः दो वर्णोंके लोप का उदाहरण इस रूप में सम्भत है। महाभाष्य में भी त्रि के तृ सम्प्रसारणकी पुष्टि होती है | 26 यास्कने दो वर्णो के लोप के उदाहरणमें तृच को उपस्थित किया है अतः अगर त्रि के ही र् एवं इ का लोप मान लिया जाय तो दो वर्णोंका लोप हो जाता है तथा त्+ऋच - तृच शब्द अवशिष्ट रहता है व्याकरणकी दृष्टि से सम्प्रसारण कर भले ही ऋ का लोप मान लें लेकिन भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे र् एवं इ का लोप करना ही ज्यादा तर्क संगत होगा। यास्ककी इस व्याख्यामें ध्वन्यात्मकता एवं अर्थात्मकता सुरक्षित है । भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जायगा !
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(13) ज्योति : - इसका अर्थ प्रकाश, नक्षत्र, दृष्टि आदि होता है । यास्क आदि वर्ण विपर्यय” के उदाहरणमें ज्योति शब्दको उपस्थापित करते हैं । द्युत् दीप्तौ धातुके आद्यक्ष द् का ज हो गया है द् यु त् ज् – यु-त्-ज्युत् – ज्योतिः । भाषा विज्ञानमें भी वर्ण विपर्ययकी मान्यता है । वर्ण विपर्ययको भाषा विज्ञानके शब्दोंमें डमजंजीमेपे कहा जाता है। अतः भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे यह उपयुक्त है । व्याकरणके अनुसार इसे द्युत् दीप्तौ + औणादिक इस् प्रत्यय कर बनाया जा सकता है।
(14) घन :- घनका अर्थ घना, बादल, लौहमुद्गर, काठिन्य आदि होता है। 28 यह शब्द हन् धातुसे बना है । हन् धातु स्थिल ह का घ वर्ण विपर्यय होकर घ+न्+अप् - घनः शब्द बनेगा । ( हन्यते हननमिति वा घनः ) जिससे मारा जाय उसे घन कहते हैं । हन्से घन शब्दमें आदि विपर्यय है । भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे यह निर्वचन उपयुक्त है । व्याकरणके अनुसार इसे हन् हिंसागत्यौः+अप्” प्रत्यय कर बनाया जा सकता है। ह का घ परिवर्तन अन्य शब्दोंमें भी पाया जाता है— हन् – जघनम् । घनका प्रयोग सम्प्रति लौहमुद्गर एवं बादलके अर्थमें अधिक होता है ।
(15) बिन्दु :- इसका अर्थ बूंद होता है। यह शब्द भिद् विदारणे धातु से बनता है । यास्क इसे आद्यक्षर विपर्ययके रूपमें प्रस्तुत करते हैं । भिद् में आद्यक्षर भ का ब होकर बिद् -उ- बिन्दुः । भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से यह निर्वचन
१४६ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क