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उपयुक्त है। महाप्राण वर्णका अल्पप्राण वर्णमें परिवर्तन यहां हुआ है। इसे आद्यक्षर विपर्यय या अल्पप्राणीकरण कहा जा सकता है। व्याकरण के अनुसार इसे विदि अवयवेधातुसे उः प्रत्यय कर बनाया जा सकता है।
(16) बाट्य :- इसका अर्थ होता है भरण करने योग्य । यह भट् भृत्तौ । पातु से बना है। यह भी आद्यक्षर विपर्ययका उदाहरण है। भटधातुके आद्यक्षर भ का ब वर्ण विपर्यय हो गया है । यहां भी आद्यक्षर का अल्पप्राणीकरण हुआ है। भटधातु वेतन पाना या पालन करना अर्थ में होता है। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे यह निर्वचन उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार इसे क्ट् +ण्यत् – बाट्य बनाया जा सकता है।
(17) स्तोकाः :- स्तोकका अर्थ थोड़ा, अल्प होता है । यह शब्द च्युतिर् क्षरणे धातुसे बनता है । यास्कने आद्यन्त वर्ण विपर्ययके रूपमें इसे उद्धृत किया है। श्चुत् धातुके श्+च+उ+त् में स् क उ त् विपर्यय हो गया है। पुनः स्+त+उ+क स्तुक-स्तुक-स्तोकाः । भारतीय निर्वचन सिद्धान्तके अनुकूल यह निर्वचन है। भाषा वैज्ञानिक आधार पर इसे पूर्ण उपयुक्त नहीं माना जायगा। व्याकरणके अनुसार इसे स्तुच् प्रसादे धातुसे घञ 31 प्रत्यय कर बनाया जा सकता है। यास्कके आद्यन्त विपर्ययका यह उपयुक्त उदाहरण नहीं प्रतीत होता क्योंकि श्चुत्का आदि वर्ण श् है जिसका कोई परिवर्तन नहीं होता मध्यवर्ती च एवं अन्त वर्ण त का विपर्यय होता है आद्यक्षर श् का स् हो गया है जो तालव्यका दन्त्य है इसे वर्ण परिवर्तन कहेंगे विपर्यय नहीं । इसी प्रकार म यवर्ती च का क भी हो गया है जो तालव्य का कण्ठ्य वर्ण परिवर्तन है।
(18) रज्जु :- रज्जुका अर्थ रस्सी होता है। यह शब्द सृज् विसर्गे ६ तुसे बना है। यह भी आद्यन्त विपर्ययका उदाहरण है। सृज् धातुका आद्यन्त विपर्यय होनेसे रज्जु शब्द बना है सृज्–सर्ज+उ-रस्जु-रज्जुः |भाषा विज्ञानके अनुसार इसे उपयुक्त माना जा सकता है। सृज-सर्ज-रस्ज में आद्यन्त विपर्यय नहीं है, आदि मध्य विपर्यय यहां स्पष्ट है। अतः आद्यन्त विपर्ययके उदाहरणमें इसका परिगणन उपयुक्त नही । व्याकरणके अनुसार इसे सृज् विसर्गे+उ प्रत्यय करने पर बनाया जा सकता है। इसमें असुक का आगम एवं धातुस्थ सकारका लोप भी होगा।
१४७: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क