________________
-
के अनुसार इसे प्र+दा' (दद्) + क्त, प्र+द्+क्त प्र + त् + त – प्रत्तम् बनाया जा सकता है। इसे प्रदत्तम् का ह्रस्व रूप माना जा सकता है। भाषा वैज्ञानिक मान्यता है कि कुछ शब्द कालान्तरमें घिस कर छोटे हो जाते हैं। लगता है प्रत्तम् शब्द इसी का परिणाम है ।
(2) अवत्तम् :- अवत्तम् का अर्थ होता है दिया गया । यह निर्वचन क्रममें धात्वादि शेषका उदाहरण है। यह अव+दो अवखण्डने धातुसे क्त प्रत्यय करने पर बनता है । अव+दो+क्त - अवदत्तम् - अवत्तम् यहां दो धातु का आदि भाग द् ही शेष रहता है तथा द् का त् होकर अवत्तम् रूप बनता है। यह निर्वचन उपयुक्त है । व्याकरणके अनुसार इसे अव +दो+क्त, अव - दो' - दा+क्त –अवदात्त, अव–द’+ (त्) +क्त –अव +त्+त् – अवत्तम् माना जा सकता है। अवदत्तम् से अवत्तम् की संभावना अधिक है । यद्यपि यास्कने इस शब्दमें दो अवखण्डने धातुका योग माना है।
(3) स्तः- यह अस् भुवि धातुके प्रथमपुरूष द्विवचन का रूप है। स्तः में अस् धातुके आद्यक्षर अ का लोप हो गया है। निर्वचन क्रममें यास्क अपना सिद्वान्त देते हैकि निवृत्ति स्थान 9 में अर्थात् गुण वृद्धिसे रहित स्थान में अर्थात् धातु की मूलावस्थामें रहने पर धातुके अक्षरका लोप हो जाता है । निवृत्ति स्थान को भाषाविज्ञानके शब्दों में मां ज्मतउपदंजपवद कहते हैं । भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से यह निर्वचन उपयुक्त है तथा निर्वचन सिद्वान्त के अनुकूल है। व्याकरणके अनुसार अस् भुवि+तस् प्रत्यय - अकार लोप 7 - स्तः बनाया जा सकता है । (4) सन्ति :
—
- यह अस् भुवि धातुके प्रथमपुरूष बहुवचनका रूप है। इस शब्दमें भी अस् भुवि धातुके आद्यक्षर अ का लोप हो गया है। अस्+झि, अस् - स्+झि - अन्ति - सन्ति । अक्षर लोप निर्वचन सिद्धान्तोंमें एक है । 8 यह लोप कई रूपोंमें हो सकता है, आदिलोप, मध्यलोप, अन्त्यलोप आदि । भाषा वैज्ञानिक दृष्टिकोणसे यह सर्वथा उपयुक्त है । व्याकरणके अनुसार अस् भुवि धातु के अ का लोप हो जाता है फलतः अस् स्+झि - अन्ति सन्ति रूप बनता है। यहां भी निवृत्ति स्थानमें गुण वृद्धि निषेध है ।'
(5) गत्वा :- गत्वाका अर्थ होता है जाकर। यह पूर्वकालिक क्रिया है ।
१४३ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क
-: