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नि निश्चयेन गमाः निगूढ़ार्था एते परिज्ञाताः सन्तो मन्त्रार्थान् गमयन्ति । २ अर्थात् ये निश्चित रूपमें मन्त्रोंके अर्थोंको बोध कराने वाले होते हैं। मंत्रार्थ बोधकी सिद्धि में उनका कहना है कि वे शब्द वेद मंत्रोंसे चुन-चुन कर संग्रह किए गए हैं। वे ही निगम् धातुसे निष्पन्न निगमनके कारण निगन्तु होते हुए निघण्टु कहलाये। निगमयितृ-निगन्तृ- निगन्तु-निघन्तु०ग के स्थान में घ
निगन्तु-निघन्टु-निघण्टु- त के स्थान में ट एवं णत्व !
आचार्य यास्कके अनुसार यह शब्द आहनन क्रिया योग से निष्पन्न होता है'आहननादेव स्युः समाहता भवन्ति '४ आहनन क्रियाके योगसे निष्पन्न होने में इनका तर्क है कि वे शब्द भली प्रकार क्रम पूर्वक कहे गये हैं। सम् + आ हन्, समाहन्तृसमाहन्तु-नि+ आ+ हन्तु (सम् उपसर्ग के स्थान पर नि उपसर्ग का व्यत्यय आ की अविद्यमानता का अध्याहार) निहन्तु-निघण्टु (ह के स्थान में घ तथा त के स्थान मेंट का परिवर्तन एवं णत्व)
यास्क निघण्टु शब्दके निर्वचनमें एक और विकल्प देते हैं। जिसके अनुसार इसका अर्थ होता है कि ये शब्द वेद मन्त्रोंसे एकत्र किए गये हैं। वेद मन्त्रों से शब्दों का चयन औपमन्यवके विचारसे मेल खाता है। 'यद्वा समाहृता भवन्ति' ४ इस विकल्प में 'सम+ आ+ हृ प्राप्त होता है। समाहर्तु समाहर्तृ नि+ आ + हर्तु - ( सम् उपसर्ग के स्थान पर नि उपसर्ग व्यत्यय) समाहर्तृ (आ की अविद्यमानताका अध्याहार (आ का लोप) निघण्टु (ह एवं त का क्रमशः घ एवं ट में परिवर्तन णत्व)। निघण्टु शब्दके निर्वचनमें तीन प्रकारकी वृत्तियां प्राप्त होती हैं, अति परोक्ष वृत्ति, परोक्षवृत्ति एवं प्रत्यक्षवृत्ति। प्रत्यक्षवृत्तिमें धातु स्पष्ट रहता है, परोक्षवृत्तिमें वह सामान्य प्रयोगसे मिन्न हो जाता है तथा अतिपरोक्षवृत्तिमें धातु का पता नहीं चलता। यहां निगमयितृ प्रत्यक्षवृत्ति, निगन्तु परोक्षवृत्ति तथा निघण्टु अतिपरोक्ष वृति 'है' आचार्य औपमन्यवके सिद्धांतसे स्पष्ट होता है कि शब्दोंके विकासकी कुछ दशाएं होती हैं। परिणामतः उच्चारण सम्बन्धी व्यवधान एवं आदतोंके चलते शब्दोंका मूल रूप कमी स्पष्ट होता है कभी अर्ध स्पष्ट एवं कभी अस्पष्ट । निर्वचनकी उपर्युक्त तीनों वृत्तियां इसी ओर संकेत करती है कि निगमयितृ से निगन्तु शब्द ही परिस्थितियों के परिणामस्वरूप निघण्टुमें परिणत हो गया। व्याकरणके अनुसार इसे नि+घण्ट्+कु = निघण्टु शब्द बनाया जा सकता है।
(२) आचार्य :- आचार्य इसलिए कहा जाता है, क्योंकि वह आचार (उपदेश)
१२२ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क