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पुर+षद् = पुरुष में र में उ का आगम माना जाता है। डा. वर्मा इस निर्वचनको अस्पष्ट मानते हैं।९९ भाषा विज्ञानके अनुसार पृ धातु में उस् प्रत्यय करने पर पुरुष शब्द बनता है। मध्यकालीन भारतीय भाषाओंमें पुरिश शब्द मिलता है जो पृ + इस से बने हैं। अतः प्रत्यय भेदसे उसको भी प्रत्यय होना सिद्ध होता है। अमर कोषके प्रसिद्ध टीकाकार क्षीरस्वामीने पुरुष१०० को शरीर में शयन करने से या शरीर में पूर्ण होने से या शरीरमें पलनेके कारण ही पुरुष कहा है। व्याकरण के अनुसार इसे पुरी आप्यायने धातुसे कुषन्१०१ प्रत्यय करने पर बनाया जा सकता है। आज कल स्त्रीत्व भिन्नके लिए प्रयुक्त पुरुष शब्दमें अर्थ संकोच हो गया है। दर्शन ग्रन्थोंमें पुरुष प्राय: ब्रह्मका ही वाचक है। लोकमें उसके लिए परमादि विशेषणका प्रयोग होता है- परम पुरुष आदि। यास्कका यह निर्वचन आध्यात्मिक अर्थका प्रतिपादक है।
(३५) पृथिवी :- पृथ्वीका अर्थ धरित्री होता है। यास्कके अनुसार फैली हुई होनेके कारण पृथिवी नाम पड़ा-'प्रथनात् पृथिवी इति आहुः १०२ इसमें प्रथ् विस्तारे धातुका योग है। इस निर्वचनमें दृश्यात्मक आधार अपनाया गया है।१०३ इसका ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार उपयुक्त है इसे भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से संगत माना जायेगा। व्याकरणके अनुसार यह प्रथ् विस्तारे धातु से षिवन्१०४ + ङीष् प्रत्यय करने पर बनाया जा सकता है। डा. वर्मा इसे अविकसित तत्कालीन माषा विज्ञानका परिणाम मानते हैं।१०५ ग्रीक एवं लिथुआनियन का प्लातु (Platue) शब्द यास्कके निर्वचनके निकट का है।
(३६) बिल्वम् :- इसका अर्थ बेल होता है। निरुक्तके अनुसार इसे खाने पर लोगोंका भरण पोषण होता है या खाने के समय इसे फोड़ कर ही खाना पड़ता है इसलिए इसे बिल्व कहते हैं- 'बिल्वं भरणात् भेदनाद्वा १०६ प्रथम निर्वचन में मृञ् भरणे धातु का योग है तथा द्वितीयमें भिद् विवारणे धातुका। मृ-बिल्व, मिद्-मिल्वबिल्व। दोनों निर्वचन अर्थात्मक दृष्टिकोणसे उपयुक्त हैं लेकिन ध्वन्यात्मक दृष्टिसे दोनों अपूर्ण हैं। यास्कके निर्वचनोंसे स्पष्ट होता है कि उनके समयमें बिल्व भरण पोषण के मुख्य साधनोंमें एक था। व्याकरणके अनुसार इसे बिल भेदने धातुसे बनाया जा सकता है। म ध्वनिका अल्पप्राणीकरण रूप ब यहां प्राप्त होता है।
(३७) अवसम्:- पथ्यदन।१०७पथ्यदन पाथेयको कहते हैं।अवस शब्दमें गत्यर्थक अव् धातु एवं अस् प्रत्ययका योग है। ध्वन्यात्मक आधार इसका संगत है लेकिन अर्थात्मकता अस्पष्ट है। भाषा विज्ञानकी दृष्टिसे इसे पूर्ण संगत नहीं माना जायगा।
१३४ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क