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(४९) गिरिष्ठा :- पर्वत पर बैठने वाला।१२६ यास्कने गिरिस्थायी कह कर गिरिष्ठा शब्दको स्पष्ट किया है। गिरि+स्था। स्था का ष्ठा में परिवर्तन भाषा वैज्ञानिक दृष्टि से भी उपयुक्त है। व्याकरण की प्रक्रिया के अनुसार भी यह शब्द इसी प्रकार बनेगा। गिरि+स्था ड-गिरिस्थ-गिरिष्ठ-गिरिष्ठा।
(५०) गिरि :- गिरिका अर्थ पर्वत होता है। यास्कके अनुसार यह ऊपर उठा होता है या पृथ्वीसे निकला होता है, इसलिए इसे गिरि कहते हैं-गिरि:समुद्गीणों भवति' इस शब्दमें गृ धातुका योग है। ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार इसका उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार इसे गृ+वाहुलकात्कि:१२८ कर बनाया जा सकता है।
(५१) पर्वत :- पर्वतका अर्थ पहाड़ होता है। निरुक्तमें पर्ववान् को पर्वत कहा गया है। पर्वका अर्थ सन्धि होता है। पर्वके लिए दो निर्वचन यहां किए गए हैं :- (१) पृणाति:१२९ इसके अनुसार पर्व शब्दमें पूरणार्थक पृ धातुका योग है। (२) प्रीणाते: १२९ इसके अनुसार पर्व शब्द में प्रशंसार्थक प्री धातुका योग है। प्रसंशार्थक प्री धातु से पर्व मानने पर यह अर्धमास पर्व (अमावाश्या) पूर्णिमाके लिए प्रयुक्त होगा क्योंकि इसमें देवता आदि प्रसन्न किए जाते हैं। सन्धि वाचक पर्व शब्द भी इसी शब्द सामान्य के अनुसार सिद्ध हो जायेगा। १३० कृष्णपक्ष एवं शुक्ल पक्षकी सन्धि पर आनेके कारण दर्शपौर्णमास पर्व कहलाता है। अत: सन्धिके कारण पर्वसे पर्वत बना। यास्कके निर्वचनमें पृ धातु + मत्वर्थीय प्रत्यय है। अर्थात्मक दृष्टि से दोनों निर्वचन पर्वके लिए उपयुक्त है। व्याकरणके अनुसार पर्व पूरणे धातुसे अतच्१३१ प्रत्यय कर पर्वत शब्द बनाया जाएगा।
(५२) पर्व :- सन्धि या त्योहारका वाचक है। इसका विशेष उल्लेख पर्वतमें किया जा चुका है। -: सन्दर्भ संकेत :
१.दि निघण्टु एण्ड दि निरुक्त-लक्ष्मण स्वरूप-पृ१४,२.नि.दु.वृ.१।१, ३. 'छन्दोभ्य:समाहृत्य समाहृत्य समाम्नाता: नि.१।१,४.नि.१।१,५. निघण्टव इत्यतिपरोक्षवृत्तिः निगन्तव इति परीक्षवृत्ति : निगमयितारः इतिप्रत्यक्षवृत्तिः नि,दुवृ.१।१।१ पृ.५,६.उणा-१।३८,७.नि. १।२, ८. "मन्त्र व्याख्याकृदाचार्यः" अमरकोष-२७७, ९.' उपनीय तु य:शिष्यं वेदमध्यापयेद्विजः, सांगंच सरहस्यंच तमाचार्य प्रचक्षते।।''मनु २।१४०, १०. स्वयमाचरते यस्मादाचारं स्थापयत्यपि, आचिनोति च शास्त्रार्थान् यमः सन्नियमैर्युतः ।।' -वा. पु. ५९।३०, ११. यावकस्तु कुल्माष : अम.
१३८ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क