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(२३) अक्षि :- इसका अर्थ आंख होता है। यास्कका कहना है कि इससे रूप देखा जाता है या रूपका भक्षण किया जाता है-'अक्षि चष्टे:'६६ इसमें चक्षिङ दर्शने या चश् भक्षणे धातुका योग है। इस निर्वचनका अर्थात्मक महत्त्व है। अक्षि शब्दके निर्वचन में यास्क आचार्य आग्रायणके सिद्धांतका प्रतिपादन करते हैं। तदनुसार अक्षि शब्द अंज् (प्रकाशित होना अर्थ में) धातुसे बना है क्योंकि आंख शरीरके अन्य अंगोंकी अपेक्षा अधिक व्यक्त होती है। अन्य अंगोंकी अपेक्षा अधिक व्यक्त होनेकी पुष्टि ब्राह्मण वचनोंसे भी होती है।६७ आग्रायणने अक्षि 'अनक्ते: कहकर अक्षि शब्द में अंज् धातुको स्पष्ट कर दिया है। आचार्य आग्रायणका निर्वचन यास्कके निर्वचनकी अपेक्षा ध्वन्यात्मक दृष्टिसे अधिक संगत है। मारोपीय भाषाओं में देखना अर्थ में oqu प्राप्त होता है इससे बना शब्द 'ओस्से' (दोनों आंखके लिए) ग्रीक भाषामें प्रचलित है। व्याकरणके अनुसार-(अश्नुते अनेनेति अक्षि)- अशू व्याप्तौ धातुसे क्सि८ या असू व्याप्तौ + इन् से अक्षि शब्द बनाया जा सकता है।६९
(२४) कर्ण :- कर्ण: का अर्थ कान (श्रवणेन्द्रिय) होता है। यास्कका कहना है कि इसका द्वार कटा रहता है इसलिए इसे कान कहा जाता है- कर्णः कृन्तते:, निकृतद्वारो भवति'०० कर्ण शब्दमें कृती छेदने धातुका योग है। इस निर्वचनमें आकृतिसे ही मूल आधार स्पष्ट होता है। अतः इसका अर्थात्मक आधार उपयुक्त है। कर्णके निर्वचनमें आचार्य आग्रायणके मतका भी उल्लेख होता है-ऋच्छतेरित्याग्रायण:७० इसके अनुसार कर्ण शब्दमें गत्यर्थक ऋच्छ धातुका योग है। ब्राह्मण वचनसे भी इसकी पुष्टि होती है. 'ऋच्छन्तीव खे उद्गन्तामिति ह विज्ञायते'७० आकाशमें गये शब्द इन्हें प्राप्त होते हैं। ध्वन्यात्मक दृष्टिसे यह निर्वचन अपूर्ण है। अर्थात्मक आधार इसका उपयुक्त है। आग्रायणके निर्वचनमें ख + ऋच्छ धातु है। डा. वर्मा कर्ण शब्द में पकड़ना अर्थ वाले मारोपीय क्वैर् शब्दको मूल मानते है। प्राचीन वुल्गेरियन माषामें पकड़ना अर्थमें क्रेन (Cren) का प्रयोग होता है। कान भी ध्वनि पकड़ता है इसलिए Qur से इसे माना जा सकता है।७१ व्याकरणके अनुसार कर्ण शब्द कृ विक्षपे धातु से नर प्रत्यय कर बनाया जा सकता है। कृ + नः= कर्ण या कर्ण भेदने धातु से अच्४ प्रत्यय कर कर्ण शब्द बनाया जा सकता है -कर्ण + अच-कर्णः।
(२५) आस्यम् :- इसका अर्थ मुख होता है। निरुक्त के अनुसार इसमें अन्न फेंका जाता है इसलिए आस्य कहलाया। यह अन्न को आर्द्र कर देता है.
१३० : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क