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(क) निरूक्त के प्रथम अध्याय के निर्वचनों का मूल्यांकन
निरुक्तका प्रथम अध्याय निरुक्तकी भूमिका है। निघण्टुके शब्दोंकी व्याख्या तो द्वितीय अध्यायसे आरंभ होती है। प्रथम अध्यायमें प्रसंगत: आये कुछ शब्दोंकी व्याख्याकी मयी है। इस अध्यायमें कुल ५३ शब्दोंके निर्वचन प्राप्त होते हैं। प्रसंगतः आये शब्दोंकी व्याख्या करना यास्ककी निर्वचन प्रियताका प्रमाण है। यास्क मूल रूपमें निर्वचनकार हैं परिणामत: वे अर्थोकी खोजमें निर्वचनको ही आधार मानते हैं। यहीं कारण है कि इनके निर्वचन अर्थात्मक दृष्टि से प्रायः उपयुक्त हैं। यद्यपि इनके कुछ निर्वचन अर्थकी दृष्टिसे आज असंगत लगते हैं इसका कारण उन शब्दोंके अर्थोंमें किंचित् या पूर्ण परिवर्तन हैं। अर्थ परिवर्तनभी भाषा विज्ञान के द्वारा मान्य है। यास्कके समयमें कुछ शब्दोंके जो अर्थ थे वे या तो आज गौण हो गये हैं या पूर्णतः बदल गये हैं। ___ प्रथम अध्यायमें परिगणित निर्वचनोंको भाषा वैज्ञानिक आधार पर निम्नलिखित रूपमें देखा जा सकता है:-ध्वन्यात्मक आधार पर पूर्णतः आधारित निर्वचनोंमें - राजा, आचार्य ; वयाः, शाखा, धुः, दक्षिणा, शक्वरी, ब्रह्मा, आस्यम् दधन, दंश आदि परिगणित हैं। आंशिक ध्वन्यात्मकतासे युक्त स्तोक सिकता आदि है। अर्थात्मक महत्त्व रखने वाले निर्वचनों में ध्वन्यात्मक महत्त्व वाले निर्वचनों के अतिरिक्त निघण्टु, कुल्माष, श्वः, ह्य, गायत्री, अध्वर्यु, अक्षि, कर्ण आदि आते हैं। भाषा वैज्ञानिक दृष्टिसे चित्तम्, वरः, मघः, भगः, वृहत् , ब्रह्मा, अध्वर्यु, ह्रदः, गिरः, सुरा, पृथिवी, स्थाणु, अर्थ, धातु दंश, भीम, भीष्म, वारवन्तम्, गिरि, गिरष्ठा, पर्व, पर्वत आदि सर्वथा संगत है। अक्षि एवं कर्ममें दृश्यात्मक आधार अपनाये गये हैं। इन निर्वचनोंको आकृति प्रधान निर्वचन भी कहा जा सकता है। अद्भुतमें सादृश्य तथा शक्वरीमें ऐतिहासिक आधार हैं। अश्व आख्यातज सिद्धान्त पर पूर्णत: आधारित है। नरक शब्द में कल्पना की प्रधानता तथा अतिप्राकृत तत्त्वकी ओर संकेत है। अन्यः अर्थ परिवर्तनको स्पष्ट करता है। भाषा विज्ञानके अनुसार अन्यः हस्तः, वीरः, सीमा, अवसम्, त्विषि एवं शिशिरको पूर्ण संगत नहीं माना जा सकता। प्रथम अध्यायके निर्वचनोंका समीक्षण :
(१) निघण्टुः- निघण्टु शब्दके निर्वचनमें आचार्य औपमन्यवका कहना है कि यह शब्द निगम् धातुसे बना है|नि का अर्थ होता है निश्चयेनतथा गम् गतौ धातु है।
१२१ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क