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ये विभक्तियां तो एक संस्कार मात्र होती हैं जिसके चलते शब्द प्रयोगार्ह बन जाते हैं, पद बन जाते हैं। भर्तृहरि भी अर्थको ही मूल मानते हैं तथा शब्दको अर्थका आश्रय मात्र स्वीकार करते हैं। प्रयोक्ता अपने अभिधेयार्थकी स्पष्टताके लिए एवं ग्रहीता उसके द्वारा प्रयुक्त अर्थ की उपलब्धिके लिए शब्दका आश्रय ग्रहण करता है । ९ शब्दकी व्यापकता उसकी आकृतिके कारण नहीं होती बल्कि अर्थविस्तारके कारण होती है। जेस्पर्सनकी मान्यता है कि प्रयोक्ता एवं ग्रहीताके मध्य स्थित व्यापारको समझनेके लिए उन दोनोंकी गतिविधि एवं औत्सुक्यका ध्यान रखना आवश्यक
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यास्कने अर्थको मूल माना है। अर्थ नित्य: परीक्षेत " के द्वारा अर्थकी ओर स्पष्ट संकेत किया है। शब्दका वाह्य रूप भ्रमावह हो सकता है या उसके साथ सम्बद्ध होनेसे प्रत्ययादि संस्कार भी इसी प्रकार हमारे समक्ष आ सकते हैं। शब्द रूप को केवल माध्यम कहा जा सकता है। निर्वचनका उद्देश्य शब्द स्थित अर्थका उद्घाटन करना होता है जिसको यास्कने भी प्रधानता दी है। मन्त्रोंमें अर्थवत्ता निर्धारण के अवसर पर अर्थवन्त: शब्द सामान्यात् १२ कह कर इन्होंने समग्र वैदिक एवं लौकिक शब्दोंको अर्थवान् माना। वे उस शब्दज्ञको जो अर्थज्ञ नहीं है, व्यर्थ भार ठोने वाला स्थाणुकी संज्ञा देते हैं।१३ अर्थ शून्य शब्दज्ञको अग्निसे रहित शुष्क इन्धनकी भांति मानते हैं जो कभी जलता नहीं, कभी प्रकाशित नहीं होता । १४
भाषा विज्ञानमें अर्थ विज्ञानका महत्त्वपूर्ण स्थान है। यास्क अर्थ विज्ञानके क्षेत्रमें प्रधान आचार्य हैं। प्राचीन कालमें भारतमें ही अर्थ विज्ञानका विवेचन प्रस्तुत करते हुए आचार्य यास्क ने अपना स्थान स्थिर किया । १५
शब्दोंके अर्थमें परिवर्तन होते हैं यह भाषा विज्ञानका भी मान्य सिद्धान्त हैं। किसी शब्दका प्रारम्भिक अर्थ कालान्तरमें कारण विशेषके चलते परिवर्तित हो जाता है, यह अर्थ परिवर्तनका सिद्धान्त है। जैसे- वैदिक कालमें मृगशब्द सामान्य पशुके अर्थमें प्रयुक्त था। मृग्यते अन्विष्यते इतिमृग:अर्थात् आखेटमें पशुओंका अन्वेषण होता था यही कारण है कि आखेटके लिए मृगयाशब्दका प्रयोग होने लगा । कालान्तरमें यज्ञ आदिके लिए हरिण पशु के चर्मका विशेष उपयोग होनेके चलते सामान्य पशुओंकी अपेक्षा हरिणका आखेट अधिक होने लगा होगा तथा यह शब्द सामान्य पशु वाचक न रहकर हरिणके लिए रूढ़ हो गया। आज मृगका अर्थ हरिण लिया जाता है न कि सामान्यपशु । यद्यपि सामान्य पशुवाचक अर्थ मृगेन्द्र, मृगराज, मृगया आदिशब्दोंमें अभी भी
१०५ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क