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प्रचलित अर्थके आधारकी पुष्टिमें ही विविध धातुओंकी कल्पनाकी जाती है चाहे इस कल्पनाका ध्वन्यात्मक आधार सुरक्षित रहें या नहीं। आचार्य सायणने भी निरुक्तको स्पष्टकरते हुए कहाकि-अर्थके अवबोधमें निरपेक्ष रूपसे कथित पदजात निरुक्त है।५०
यास्कने वैदिक शब्दोंके संग्रह निघण्टुके शब्दोंका निर्वचन किया है। शब्द सामान्यके अनुसार इसके अधिसंख्य शब्द लौकिक संस्कृतमें भी प्रयुक्त होते हैं। शब्दोंके निर्वचनमें अर्थकी प्रधानता दी गयी है। उस निर्वचनसे क्या लाभ जिससे शब्द स्थित अर्थका प्रकाशन नहीं होता। फलतः शब्दोंके निर्वचनमें अर्थात्मक आधार महत्त्वपूर्ण है यास्क ध्वन्यात्मक आधारकी अपेक्षा अर्थात्मक आधारको अधिक महत्त्व देते हैं। यही कारण है कि वे सभी प्रयुक्त शब्दोंके अर्थको विनिश्चय कर पाते हैं। यद्यपि आजके परिप्रेक्ष्यमें शब्दोंके अर्थों में परिवर्तन भी हो गया है। इसके चलते यास्कके कुछ निर्वचन अर्थात्मक आधार से भी पूर्ण संगत प्रतीत नहीं होते। लेकिन लगता है यास्कके समयमें वे ही अर्थ होंगे जिसका आधार मानकर उन्होंने निर्वचन किया है। अर्थात्मक महत्त्वसे सम्बद्ध प्रचुर उदाहरण निर्वचन क्रममें प्रदर्शित होंगे। -: संदर्भ संकेत :
१. उणा :२।४, २. अष्टा.३।३।१९, ३. नि.१।६, ४. तत्सामान्यादितरोऽपि शब्दार्थोऽर्थ उच्यते-नि.दु.वृ.१।६, ५. तस्मादेतद् ब्रह्मनाम रूपमन्नं च जायते . मुण्ड. १।१।९, ६. यस्मिंस्तूच्चरिते शब्दे यदा योऽर्थः प्रतीयते। तमाहुरर्थः तस्यैव नान्यदर्थस्य लक्षणम्।। वा. २।३२७-३२८, ७. ऋ.सं. १०७१।४, ८. अष्टा. १।२।४५,९. यथा प्रयोक्तुः प्राग्बुद्धिः शब्देष्वेव प्रवर्तते। व्यवसायो ग्रहीतृणामेवं तेष्वेव जायते।। वा. १।५३, १०. फिलसाफी आफ लैग्वेज- पृ १७, ११. नि. २।१, १२. नि. २।१, १३. नि. १।५, १४. नि. ११६, १५. एसे द सिमान्तिक माइकेल व्रील महोदय का अर्थ विज्ञान पर भाषा विज्ञानमें प्रथम पुस्तक १८९८ इ. में प्रकाशित हुई है। हि.नि.भू. (ऋषि) पृ. ४५, १६. पयः पिवतेर्वा प्यायतेर्वा-नि. २१२, १७. क्षीरं क्षरणात्- नि. २।२, १८. नि. २५, १९. नि. २।२,५, २०. नि. २।४, २१. नि. २।१, २२. ऋ. १।२४।१४, २३. नि. ११६, ऋ. १०७५।५, २४. नि. १।६, २५.नि. ११५, २६. अव ते हेलो वरूण नमोभिः...ऋ. १।२४।१४, ऋ. १।३५।१०, ऋ. १।३५७ आदिमें भी असुर शब्द देवताका वाचक है।, २७. नि. १०।३. २८. नि.दु.वृ. १०।३, २९. नि. ३।२, ३०. नि. २।१, ३१. ऋ. ९।४६।४, ३२. नि.
११०: व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क