________________
हैं। ग्राम्य शब्दमें मूर्खता अर्थकी अभिव्यंजना है। कर्म शब्दका अर्थ होता है जो किया जाए लेकिन निरुक्तमें यह शब्द अर्थके लिए प्रयुक्त हुआ है। गति कर्माधातु का अर्थ होगा गत्यर्थक धातु । पुनः एतावन्त: समान कर्माणो धातव: २४ में समानार्थक धातवः का अर्थ अभिप्रेत है। एवमेवोपेक्षितव्यम् २५ का प्रयोग निरुक्तमें देखा जाता है जिसका अर्थ होता है - इस प्रकार इसकी परीक्षा करनी चाहिए या इसे देखना चाहिए। लेकिन आज उपेक्षितव्यम् का अर्थ हो गया है उपेक्षा करनी चाहिए। यह अर्थादेश है। असुर शब्दका प्रयोग ऋग्वेदमें ही राजा वरुणके लिए हुआ है । २६ सायण भाष्यमें असुर शब्दका अर्थ अनिष्ट क्षेपणशील किया गया है। कालान्तरमें यह शब्द सुरविरोधी दैत्यका वाचक हो गया है जो अर्थादेश है। यास्कने निरुक्तमें असुर शब्दका निर्वचन दो प्रकारसे किया है। देववाचक असुरके लिए असुरत्वं प्रज्ञावत्वं वा अनवत्वं वा । अपि वाऽसुरिति प्रज्ञानाम् अस्त्यनर्थान्, अस्ताश्चास्यामर्थाः वसुरत्वमादिलुप्तम्। २७ इस प्रसंगमें दुर्गवृत्तिमें कहा गया है कि देवताओंका महान् असुरत्व है प्रज्ञावत्व हैं।२८ पुनः सुरविरोधी दैत्यके अर्थमें- असुरा-असुरता : स्थानेषु अस्ता: स्थानेभ्य इति वा अपि वाऽसुरिति प्राण नाम तेन तद्वन्त:२९ अर्थात् असुर वह है जो किसी स्थान पर न ठहरे या जो सभी स्थानों से भगाये जाएं। असु प्राणका भी नाम है इससे वह युक्तहोता है। अर्थ परिवर्तनमें अर्थोत्कर्ष तथा अर्थापकर्ष नामक दो प्रकार की स्थितियां देखी जाती हैं। अर्थोत्कर्षमें देव आदि शब्दोंको तथा अर्थापकर्षमें असुर आदि शब्दोंको देखा जा सकता है। देव शब्द आरम्भमें द्योतन गुण विशिष्टके कारण सूर्यादि द्युतिशीलका वाचक था जो कालान्तरमें अर्थोत्कर्षको प्राप्त होकर सभी देवताओंके लिए प्रयुक्त होने लगा। इसी प्रकार असुर शब्द पहले देवका भी वाचक था जो कालान्तरमें अर्थापकर्षके चलते सुरविरोधी दैत्यका वाचक हो गया।
साहित्य शास्त्र में अभिधा लक्षणा एवं व्यंजना वृत्तियां क्रमश: अभिधेयार्थ, लक्ष्यार्थ तथा व्यंग्यार्थ को द्योतित करती हैं। निरुक्त में अभिधेयार्थ का प्रयोग अधिक हुआ है। लक्ष्यार्थ के उदाहरणों में कम्बोजा : ३० शब्द को देखा जा सकता है जो कम्बोज देशवासी पुरुषों के लिए रूढ़ हो गया है। पुन: गौ३१ शब्दका अर्थ गोदुग्ध, गोचर्म आदि लक्षणा के चलते ही माना जाएगा। निरुक्त में लक्षणा के लिए भक्ति शब्द का प्रयोग देखा जाता है । ३२ भक्ति शब्द का प्रयोग यास्कने अमुख्यार्थमें किया है। इन्द्रपान शब्दका अभिधेयार्थ है इन्द्रके पानार्थ दिया गया पात्र । यह पात्र अन्य देवताओंके लिए भी प्रयुक्त होता है इ
१०७ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्य
"