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वृहदारण्यकोपनिषद्में वर्णित मधु विद्याकी आचार्यपरम्परामें भी यास्कका वर्णन प्राप्त होता है।५९ सभी पदार्थों में श्रेष्ठ आत्मा की स्थिति ही मधुविद्या का सार है। उक्त ग्रन्थमें प्राप्त मधु विद्याका सिद्धान्त यास्कके सिद्धान्तसे मिलता जुलता है। आचार्य यास्कने भी सभी पदार्थों में एक आत्माको ही स्थित माना है।६० ये आत्मा को ही ब्रह्म मानते हैं। यह सभी भूतों एवं पदार्थों में व्याप्त हैं। अहं के रूप में प्रतीत होने वाला शरीरमें भी यही द्रष्टा एवं स्रष्टाके रूप में विद्यमान हैं।६१ इस प्रकार मधु विद्याकी आचार्य परम्परामें यास्कका नाम परिगणित होने से यास्ककी प्राचीनता दार्शनिक दृष्टिकोणसे भी सिद्ध है।
निष्कर्षत : भाषावैज्ञानिक, ऐतिहासिक, दार्शनिक आदि दृष्टियोंसे यास्क पाणिनि से काफी प्राचीन हैं। निरुक्तके अन्त:साक्ष्यसे भी इसी बातकी पुष्टि होती है। महाभारत, वृहद्देवता, ऋक् प्रातिशाख्य , शतपथ ब्राह्मण आदिके आधार पर भी इनकी प्राचीनता प्रमाणित है। अत: यास्कका समय ७५० ई.पू. ही सम्यक् है। सन्दर्भ संकेत -:
१. 'जटामाला शिखारेखा रथोदण्डोध्वजोघन:
अष्टौ विकृतयः प्रोक्ता: स्वयमेव स्वयंभुवा।। - नि भाग-१ (देवराज यज्वा) प्राक्कथन १५ २. 'तत्रनामानि आख्यातजाति इति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च।'नि. १।४, ३. लङः शाकटायनस्यैव-अष्टा. ३।४।१११ त्रिप्रभृतिषु शाकटायनस्यअष्टा . ८।४।५०, ४. निरुक्तालोचन- (द्र.) पृ. १०३-१०५, ५.'तदेतत् एकमेवपदं यास्कसमय निर्धारणे बहुमन्यतेऽस्माभिः अपार्णम्, अपार्णम् अपार्णमिति- (निरुक्तालोचन), ६. अष्टा ६।१।८९ का वार्तिक, ७. नि. १।६ अष्टा १।४।१०९,८. लोप : शाकल्यस्य अष्टा . ८।३।१९, अवंगस्फोटायनस्य-अष्टा.६।१।१२३ ओतो गाय॑स्य- अष्टा.८।३।२०, ९. लक्ष्य लक्ष्ये व्याकरणम्-महाभाष्य- १।१।१ घटेन कार्य करिष्यन् कुम्भकारकुलं गत्वाह-कुरूघटं कार्यमनेन कारिष्यामीति। न तद्वच्छब्दप्रयुयुक्षमाणो वैयाकरणकुलं गत्वाहकुरू शब्दम् प्रयोक्ष्य इति-महाभाष्य. १।१।१। पृ.६०, १०. नि. १२७, ११. सूर्याद्देवतायां चाव्वाच्य :- वा. १०७- (अष्टा. ४।१।४८). १२. वृषाकपायी सूर्योषा सूर्यस्यैव तु पत्न: (वृहद्देवता -२८) १३.ब्रह्मा वृहस्पतये प्रोवाच , वृहस्पति: इन्द्राय , इन्द्रो भारद्वजाय भारद्वाज ऋषिभ्यः ऋषयोब्राह्मणेभ्यः।,१४गोल्डस्टूकर: पाणिनि पृ.२४३ -२४५ 'तुल .) (महाभा. प्रथमाह्निक),१५.अष्टा ५।२।३७.१६. नि. १।३।४, १७.
८२ : न्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क