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निघण्टुमें हैं, के संबंध में यह कहा गया है कि प्रजापति कश्यपने इसे निघण्टुमें पढ़ा था। अतः निघण्टुके प्रणेता प्रजापति कश्यप ही हैं, सर्वथा उपयुक्त नहीं है। यहां यह भी संभव है कि कश्यपके निघण्टुमें यह शब्द पठित हो तथा यास्क ने इससे प्रभावित होकर अपने निघण्टु में संग्रह कर लिया हो। अतः यास्कने पहले निघण्टुका निर्माण किया तदन्तर उन शब्दोंके निर्वचनमें वे प्रयत्नशील हुए। इस प्रकार पता चलता है कि जितने भी निरुक्तकार हुए सब निघण्टुकार भी थे। संभवतः इसी प्रकार की परम्परा रही होगी। इसके अतिरिक्त स्वतंत्र निघण्टुकार भी हो सकते हैं जिनके ग्रन्थ पर निरुक्तकी रचना किसी कारण विशेषसे नहीं हो सकी होगी।
अतः निष्कर्ष रूपमें कहा जा सकता है कि निघण्टु भी यास्ककी कृति है।
निघण्टु की रुपरेखा :- निघण्टु संस्कृत भाषा का प्रथम शब्द कोष है। इसे विश्वका प्रथम शब्द कोष भी कहा जा सकता है। इससे प्राचीन कोष ग्रन्थ किसी भी भाषामें उपलब्ध नहीं होता। यह वैदिक शब्दोंका संग्रह है।२१ इसके दो पाठ प्राप्त होते हैं, लघु पाठ तथा वृहत्पाठ।२२ वृहत्पाठमें कुल शब्दोंकी संख्या १७६८ है। लघु पाठ तथा वृहत्पाठ में संख्या तथा शैलीकी दृष्टिसे अन्तर पाया जाता है। वृहत्पाठके कुछ शब्द लघुपाठमें उपलब्ध नहीं होते। इसी प्रकार लघुपाठमें उपलब्ध कुछ शब्द भी वृहत्पाठमें उपलब्ध नहीं होते हैं।
निघण्टु पांच अध्यायोंमें विभाजित है। विषयकी दृष्टि से यह त्रिकाण्डात्मक है। फलतः इसमें तीन काण्ड प्राप्त हैं, नैघण्टुक, नैगम एवं दैवतकाण्ड। प्रथम से तीन अध्याय तक के शब्दोंका संकलन नैघण्टुक काण्ड कहलाता है, चतुर्थ अध्याय में संकलित पद नैगमकाण्डके अन्तर्गत आते हैं। इस काण्डको एकपदिक काण्ड भी कहा जाता है। निघण्टुका अन्तिम अध्याय दैवतकाण्डके नाम से प्रसिद्ध है।
नघण्टुक काण्डमें एकार्थक शब्द संकलित हैं। इसे अवगत संस्कार वाला पद कहा जा सकता है। शब्दोंके संकलनमें सुनियोजित व्यवस्था क्रम दीख पड़ता है। शब्द परिदर्शन के बाद प्रसिद्ध पर्यायके द्वारा अभिहित शब्द खण्डका अवसान होता है तथा वहीं उसकी संख्या भी दी जाती है।
सम्पूर्ण ग्रन्थका नाम निघण्टु होने पर भी प्रथम काण्डका नाम नैघण्टुक काण्ड क्यों? इस प्रकारकी जिज्ञासामें यह कहा जा सकता है कि यद्यपि सभी शब्दोंके संग्रह निघण्टुके अन्तर्गत ही आते हैं लेकिन संग्रहकी दृष्टिसे शब्दोंका विभाजन सरल एवं
८७ · व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क