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नि. २।१, ९. नि. १।४, १०. नि. १०।१, ११. नि.५।४, १२. नि. २।५, १३. नि. ६१२, १४. नि. २।५, २१२, १५. नि. २।२, १६. नि. ७६, १७. नि. ५।२, १८. 'तद् यान्येतानि चत्वारि पदजातानि नामाख्याते चोपसर्गनिपाताश्च , तानीमानि भवन्ति।' नि १।१. (ख) यास्क का समय निर्धारण
लौकिक संस्कृतकी जैसी स्थिति पाणिनिके समयमें थी, वैसी ही स्थिति वैदिक भाषा और उसके अर्थ निर्धारणके विषयमें यास्कके समय थी। भाषाका विकास होता है, यह सर्वथा सत्य है। विकासका परिणाम रूप में विकृति लाना होता है। आज की भाषा ध्वन्यात्मक या अन्य आधार ग्रहण कर किंचित् परिवर्तित हो जायेगी। भाषा को स्थिर रखने का माध्यम शब्दों को नियमबद्ध करना है। नियमबद्ध शब्दों के साथ किसी प्रकार का परिवर्तन संभव नहीं क्योंकि उसके स्वरूप को इस प्रकार नियमों के पाश में जकड़ दिया जाता है जिससे उसकी गतिशीलता नष्ट हो जाती है। लौकिक संस्कृत का रूपान्तर ५०० ई.पू. सामाजिक एवं रूपान्तर के अन्य कारणों से आरम्भ हुआ। उस समय महर्षि पाणिनि का आविर्भाव इन रूपान्तरोंको प्रतिबन्धित कर उनको स्थायी रूप देनेके लिए हुआ। इन्होंने तत्कालीन प्रचलित संस्कृत के शब्दोंको नियम से आबद्ध कर दिया जिसे देश, काल, पात्र आदिका प्रभाव इसके स्वरूप को परिवर्तित करने में सक्षम नहीं हो सका। परिणामतः आज तक संस्कृतके वे ही रूप हमारे सामने हैं जो ई.पू. ५०० वर्ष पहले थे।
वैदिक काल में मन्त्रोंका लेखन सर्वथा त्याज्य था। साधनके अभाव में तथा असीम आस्था के फलस्वरूप लोगों ने श्रुतिपरम्परा का आश्रय लिया। उस समय मंत्रों की रक्षा श्रुतिपरम्परा से ही होती थी। यह वेदाध्ययन की तत्कालीन परम्परा बन गयी थी। उस समयमें भी मन्त्रार्थावगति एवं अर्थवाद की प्रामाणिकता अपेक्षित थी। श्रुतिपरम्परा के विकसित सिद्धांतों में विकृति पाठों का प्रयोग होनेसे मंत्रोंके स्वरूपकी रक्षा तो हो जाती थी लेकिन देश काल पात्रानुसार शब्द परिवर्तनकी आशंका थी। अतः पदभेद का ज्ञान, यज्ञोंमें देवताओंके नामसे निर्दिष्ट विधियों का ज्ञान, तत्कालीन सामाजिक नास्तिकता के फलस्वरूप मंत्रोंमें अर्थ विवक्षा का समाधान आदि के लिए महर्षि यास्क का अविर्भाव हुआ। इन्होंने शब्दा में अर्थाधान प्रदर्शन के लिए निरुक्तकी रचना की तथा वैदिक शब्दोंके अर्थ
७३ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क