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(ड) आचार्य आग्रायण
आग्रायण शब्दको तद्धितान्त मानने पर आग्रायण आचार्यको अग्र नामक ऋषिका गोत्रापत्य माना जाएगा। यास्कने अपने निरुक्तमें कई स्थलों पर इनके विचारोंको उपन्यस्त किया है। अक्षि- अनक्तेरित्याग्रायण: ९२ अर्थात् अक्षि शब्द अञ्ज व्यक्तौ धातुसे निष्पन्न होता है क्योंकि अन्य अंगों की अपेक्षा ये आंखें व्यक्ततर हैं। कर्णऋच्छतेरित्याग्रायणः अर्थात् कर्णशब्द गत्यर्थक ऋच्छ् धातु से निष्पन्न होता है। क्योंकि आकाशमें व्यक्त शब्द इन्हें प्राप्त होते हैं । इन्द्र: इंदकरणादित्याग्रायण : ९३ अर्थात् इस इन्द्रने यह सब कुछ किया इसलिए इदं पूर्वक कृ धातुसे इन्द्र शब्द निष्पन्न हुआ। यास्कने निरुक्तमें इन्हें स्मरण किया है। अतः इससे स्पष्ट होता हैकि ये यास्क के पूर्ववर्ती हैं।
रचनाएं :- निर्वचनोंके प्रसंगमें यास्क इनका स्मरण करते हैं इससे लगता हैकि निरुक्त ग्रन्थ के प्रणेता होंगे। सम्प्रति इनका कोई ग्रन्थ प्राप्त नहीं होता.
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निर्वचन सिद्धान्त : अ धातुसे अक्षि ऋच्छ् धातुसे कर्ण तथा इदं+कृ धातुसे इन्द्र मानने वाले आग्रायणके निर्वचन सिद्धान्तके सम्बन्धमें इतनाही कहा जा सकता हैकि इनका निर्वचन सिद्धान्त ध्वन्यात्मक आधारको अधिक महत्त्व नहीं देता। इनके निर्वचन अर्थात्मक महत्त्वसे युक्त हैं। (ढ) चर्मशिरा
चर्मशिराको यास्कने निरुक्तकारके रूपमें उल्लिखित किया है। चर्मशिरा शब्दसे पता चलता हैकि ये आचार्य चमड़ेकी टोपी पहनते थे। इससे यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि ये शीत प्रधान देशके निवासी होंगे। शीतसे बचाव के लिए जितना उपयुक्त चमड़ा होता है उतना वस्त्रादि नहीं । यास्क विधवा शब्दके निर्वचन में इनके मतका उल्लेख करते हैं- विधावनाद्वेति चर्मशिरा९४ अर्थात् इधर उधर भागनेके कारण विधवा कहलाती है- वि + धाव् धातु से । निरुक्तमें मात्र इनका एक वार ही उल्लेख हुआ है। अन्य भी इनका उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। यास्क द्वारा इनके सिद्धान्तोंके उल्लेख करनेसे पता चलता है कि ये यास्कसे पूर्ववर्ती होंगे।
रचनाएं :- इनके कोई ग्रन्थ सम्प्रति उपलब्ध नहीं होते लेकिन यास्कके निरुक्तमें निरुक्तकारके रूपमें स्मृत होनेसे लगता है इनका कोई निरुक्त नामक ग्रन्थभी होगा। निर्वचन सिद्धान्त :- विधवा शब्दके निर्वचन प्रसंग प्राप्त इनके विचारसे पता चलता है कि निर्वचनके क्रममें आख्यातज सिद्धान्तको वे अधिक महत्त्व देते थे।
६७ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क