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पुरासप्तद्वीपा जयति वसुधामप्रतिरथः । इहायं सत्वानां प्रसभदमनात् सर्वदमनः
पुनर्यास्यत्याख्यां भरत इति लोकस्य भरणात् ।। . इस श्लोकमें सर्वदमन एवं भरत शब्दके निर्वचन प्राप्त होते हैं। सर्वदमनमें सर्व+ दम् उपशमे धातुका योग है तथा भरत शब्दमें भृ भरणेधातुका । जीवोंके प्रसभदमनके कारण सर्वदमन तथा लोकके भरण करने के कारण भरत विश्रुत हुआ । दोनों ही निर्वचनध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक दृष्टिकोणसे संगत हैं।
इसी प्रकार रघुवंश महाकाव्यमें रघु कुमार संभव में उमा, गौरी शिखर'. अपर्णा आदि मेघदूतम्में विशाला', नेता आदि शब्दोंके निर्वचन प्राप्त होते हैं।
इन निर्वचनोंसे स्पष्ट है कि ये निर्वचन भाषा वैज्ञानिक महत्त्व रखते हैं। कुछ निर्वचन ध्वन्यात्मक दृष्टिसे अपूर्ण भी हैं। इन निर्वचनोंका प्रयोजन शब्दगत अर्थके इतिहासको स्पष्ट करना है। फलतः अर्थात्मक रक्षाके लिए ध्वन्यात्मक औदासिन्य भी यत्र तत्र दृश्य होते हैं। कालिदास के अतिरिक्त अन्य कवियोंने भी अपने काव्योंमें निर्वचन प्रस्तुत किए हैं। संस्कृत साहित्य के निर्वचनोंका परिदर्शन स्थालीपुलाक न्यायसे ही यहां समुद्धृत हुआ है।
सन्दर्भ संकेत :1. रघु0 2 153, 2. रघु0 4 112, 3. नि0 2 11, 4. अभि0 7133, 5.रघु० 3121, 6. रघु0 1126, 7. रघु 5 17, 8. रघु0 5 128, 9. रघु0 1110, 10. रघु
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निर्वचनों का तुलनात्मक समीक्षण निर्वचनकी परम्परा वैदिक कालसे ही चली आ रही है। संहिताओंमें भी निर्वचन प्राप्त हो जाते हैं। किसी शब्दके साथ ही उसकी क्रिया या उसके विशेषण दे दिए गए हैं जिसके चलते स्पष्ट हो जाता है कि उस शब्द में अमुक धातुका योग संभव है। यद्यपि संहिताओंमें शब्दोंका निर्वचन मूल उद्देश्य नहीं रहा है। मन्त्र भागकी व्याख्या हम ब्राह्मण ग्रन्थोंमें पाते हैं। यह कर्मकाण्ड प्रधान है। मन्त्रोंके अर्थ प्रतिपादनमें किसी शब्दके उत्सको स्पष्ट करने में कुछ निर्वचन प्राप्त हो जाते हैं। आरण्यक एवं उपनिषद् क्रमशः उपासना एवं ज्ञान
४३ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क