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अहं त्वां भरणं कृत्वा जात्यन्धः ससुतं तदा । नित्यकालं श्रमेणार्ता न भरेयं महातपः । महा0 1 |104128 9. शाO पर्व 90 115, 10. अनु० पर्व 116 125, 11.
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(झ) संस्कृत साहित्यमें निर्वचनों का स्वरूप
साहित्य सामाजिक चित्रोंको प्रतिविम्बत करनेका प्रधान स्थल है। श्रेयः कामनासे सामाजिक घटनाओंका शब्दात्मक चारूत्वके साथ ग्रथन ही साहित्य है । संस्कृत साहित्यमें भी मूलरूपेण सामाजिक प्रतिविम्ब ही दृश्य हैं। शब्दोंके विन्यासमें यत्र तत्र शब्दमूलको स्पष्ट करनेका प्रयास किया गया है परिणामतः संस्कृत साहित्यमें भी निर्वचनोंकी उपलब्धि होती है। संस्कृत साहित्यका विशाल भंडार है । प्रकृत शोधका उद्देश्य संस्कृत साहित्यके निर्वचनोंका परिदर्शन करना नहीं है। अतः संस्कृत साहित्यमें निर्वचनोंके स्वरूप दर्शनके लिए कालिदासके ग्रन्थोंसे ही कुछ उद्धरण उपस्थापित किए जाते हैं :
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क्षतात् किल त्रायत इत्युदग्रः क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः राज्येन किं तद्विपरीतवृत्तेः प्राणैरूपक्रोशमलीमसैर्वा ।।'
इस श्लोकमें क्षत्र शब्दका निर्वचन हुआ है। क्षत एवं त्रैङ् धातुके योगसे क्षत्र शब्दका निर्वचन माना गया है। इस निर्वचनके माध्यमसे क्षत्र में गुणीय अर्थका विवेचन हुआ है। इसका ध्वन्यात्मक आधार भी संगत है। क्षत्र शब्दमें क्षत्र उपपद तथा त्रैङ् पालने धातु है ।
यथा प्रह्लादनाच्चन्द्रः प्रतापात्तपनो यथा तथैव सोऽभूदन्वर्थो राजा प्रकृतिरञ्जनात् । ।
इस श्लोकमें तीन शब्द विवेचित हुए हैं। चन्द्र शब्दमें चदिराह्लादे धातु, तपन शब्दमें तप् धातु तथा राजा शब्दमें रञ्जु धातुका संकेत है अर्थात्मक दृष्टिसे तो सभी निर्वचन उपयुक्त हैं। तृतीय निर्वचनमें ध्वन्यात्मक आधार संगत नहीं है। राजा शब्दको दीप्त्यर्थक राज् धातुसे निष्पन्न मानना ध्वन्यात्मक दृष्टिकोणसे अधिक उपयुक्त होगा ।
निरुक्तकार यास्क राजा शब्दको राज् धातुसे ही व्युत्पन्न मानते हैं। रथेनानुद्धातस्तिमित गतिना तीर्णजलधिः
४२ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क