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मन्त्रद्रष्टा को ऋषि कहा जाता है। तैत्तिरीय आरण्यकमें ऋषि शब्द का निर्वचन प्राप्त होता हे। तपस्या करते हुए स्वयंभू ब्रह्माने इन्हें स्वयं देखा । फलतः ये ऋषि कहलाये। यहां ऋषि शब्दमें ऋष दर्शने धातुका योग माना गया है ।54 निरुक्तमें भी ऋषि शब्दको ऋष् दर्शने धातुसे ही निष्पन्न माना गया है। आरण्यकोक्त निर्वचन ऐतिहासिक आधार रखता है। ऋषियोंने मन्त्रों को देखा इस आधार पर ऋष् दर्शने धातु अधिक संगत माना जायेगा। ___ ब्रह्मणस्पति शब्दका निर्वचन वृहदारण्यकोपनिषद्में प्राप्त होता है। इसके अनुसार वाक् को ब्रह्म कहते हैं । ब्रह्मर्के पतिको ब्रह्मणस्पति कहा जायेगा । वृहददेवतामें भी इसी प्रकारका निर्वचन प्राप्त होता है । निरुक्तके अनुसार ब्रह्मणस्पतिर्ब्रह्मणः पाता वा पालयिता वा है। इससे स्पष्ट होता है कि ब्रह्मणः पति दो पद खण्ड हैं तथा पाता पा रक्षणे या पालयिता पा पालने धातु के योग से निष्पन्न है। पति शब्द में दोनों अर्थ सन्निहित हैं। पति शब्दमें पा पालने ६. तुका योग महाभारतसे भी सिद्ध होता है । पालनाद्धि पतिस्त्वं मे ।" वृहस्पति शब्द भी इसी प्रकार निष्पन्न होता है । निरुक्तमें भी 'वृहस्पतिवृहतः पाता वा पालयिता वा कहा गया है। वृहतांपतिः वृहस्पतिः । वृहत् महत् का वाचक है। वृहदारण्यकोपनिषद में वृहद वाक का द्योतक है। यह शब्द समास पर आध पारित है तथा भाषा विज्ञान के अनुसार भी उपयुक्त है।
निर्वचनोंके ऐतिहासिक परिशीलनसे स्पष्ट होता है कि वैदिक निर्वचनोंमें संहिता प्रतिपादित निर्वचनोंका प्रभाव यास्क पर देखा जाता है। यास्कके समयमें निर्वचनोंका विकसित रूप देखने को प्राप्त होता है।लगता है शब्दोंके अर्थात्मक विकासके कारण अनेक निर्वचनों की व्यवस्था यास्कने की है। यहां यह भी ६ यान देनेकी बात है कि यास्कके बाद के निर्वचनों पर अवश्य ही यास्कका प्रभाव स्पष्ट होता है। महाभाष्य आदिमें प्राप्त निर्वचन तो पूर्ण रूपमें निरुक्तसे प्रभावित हैं। रामायण, महाभारत पुराण आदिमें भी निर्वचन प्राप्त होते हैं। इन ग्रन्थोंमें बहुत सारे संज्ञापद ऐसे हैं जिनका निर्वचन निरुक्तमें नहीं प्राप्त होता। नकुल, रावण, सगरण सुग्रीव, राम आदि संज्ञापदोंका निर्वचन निरुक्तमें नहीं है। स्वाभाविक है, ये ऐतिहासिक पात्र उस समय नहीं थे। यही कारण है कि रामायणके समयसे ही कुछ निर्वचन जो प्राप्त होते हैं उनमें ऐतिहासिक आख्यानका अधिक योग है।
५१ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क