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किया है-'षड्भावविकाराः भवन्तीति वार्ष्यायणि २१ सामान्य रूप में उत्पत्ति, स्थिति एवं विनाश ही किसी भी भावके प्रति विकासके रूपमें मान्य थे, परन्तु इन्होंने छह भाव विकारोंका प्रतिपादन किया। जिस प्रकार मनुष्यके शरीरकी मुख्यतया तीन अवस्थाएं होती है - (१) वाल्यावस्था, (२) यौवनावस्था तथा (३) वृद्धावस्था । उसी प्रकार इन्होंने (१) अस्ति, (२) जायते, (३) विपरीणमते, (४) वर्धते, (५) अपक्षीयते तथा (६) विनश्यति की मान्यता प्रदान की । २२
भावके संबंधमें इस प्रकार की विवेचना करने वाला कोई दार्शनिक ही हो सकता है। भारतीय दार्शनिकोंने सृष्टि, स्थिति एवं विनाश के अन्तर्गत संसारकी सारी वस्तुओंको समाहित कर लिया है। २३ वार्ष्यायणि इन दार्शनिकोंसे भी सूक्ष्म विचार उपन्यस्त कर भावके छ विकारोंकी स्वीकृति प्रदान करते हैं। पंतजलि भी अपने महाभाष्यमें इनका नाम बड़े आदरके साथ लेते हैं। २४ यास्कके निरुक्तसे स्पष्ट है कि यास्कके समय तक इनके सिद्धान्तोंकी मान्यता मिल चुकी थी। उस समय तक ये काफी ख्याति प्राप्त कर चुके थे। इस आधार पर यास्क एवं वार्ष्यायणिके अन्तरालका समय १०० वर्षका अवश्य होना चाहिए। अतः इनका समय ८५० ई. पू. के लगभग
है।
रचनाएँ :- इनकी रचनाओंके सम्बन्धमें निरुक्त एवं निघण्टुका अनुमान लगाया जाता है जो अनुपलब्ध हैं। ये व्याकरण दर्शन या निरुक्त दर्शनके विवेचक हैं। अतः उक्त विषय पर इनके स्वतंत्र ग्रन्थोंका भी अनुमान लगाया जा सकता है।
निर्वचन सिद्धान्त :- निरुक्तमें इनका सिद्धान्त भाव विवेचनके क्रममें ही उपन्यस्त है। निर्वचनके क्रममें न तो इनका कोई सिद्धान्त ही विवेचित हुआ है या न तो क़िसी शब्दका निर्वचन ही इसके द्वारा प्रतिपादित है। अतः निरुक्तके अनुसार इनके निर्वचन सिद्धांत स्पष्ट नहीं होते। (ङ) गार्ग्य
गर्गस्यापत्यं गार्ग्यः इस विग्रहके अनुसार इनके पिताका नाम गर्ग प्रतीत होता है। अगर गर्ग गोत्रका माना जाय तो ये यजुर्वेदाध्यायी, धनुर्वेदोपवेदी थे। इनकी शाखा माध्यन्दिनी थी ये कात्यायन सूत्रके थे। इनका वर्णन निरुक्तके अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में भी प्राप्त होता है। गार्ग्यकी प्रसिद्धि नैरुक्त एवं वैयाकरणके रूपमें हैं। महर्षि यास्कने अपने निरुक्तमें इनका उल्लेख तीन स्थलों पर किया है- (१) शाकटायनने 'स्वतन्त्र अस्तित्व वाले उपसर्ग अनर्थक हैं' २५ सिद्धांतको माना । गार्ग्यका कहना हैकि स्वतंत्र
५८ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क