________________
शब्द में रंज् धातुको माना । विष्णु पुराणमें भी राजा शब्द में रज् धातुका योग माना गया है-'राजाभूज्जनरंजनात्'”क ।
राजन् शब्दके उपर्युक्त निर्वचनोंके परिशीलनसे पता चलता है कि राजन् शब्दमें राज्धातु ही है । ध्वन्यात्मक दृष्टिसे इसमें राज् धातु मानना संगत भी है। पुनः राज्धातु वेदमें ऐश्वर्यार्थक तथा वादमें दीप्त्यर्थक हो गया है। कालिदास एवं विष्णु पुराणका निर्वचन राजाके व्यवहार पक्षको स्पर्श करता है।
सूर्य वैदिक दृश्यमान देव हैं । इन्हें सृष्टिका नियामक भी माना गया है। ऋग्वेदमें कहा गया है कि सूर्य स्थावर एवं जंगमकी आत्मा हैं ।” सूर्य शब्दका निर्वचन वृहद्देवतामें प्राप्त होता है। वहां सृ गतौ धातुसे तथा सु+ ईधातुसे सूर्यको निष्पन्न माना गया है।38 प्रथम निर्वचन ध्वन्यात्मक एवं अर्थात्मक आधार से युक्त है द्वितीय निर्वचनका मात्र अर्थात्मक महत्त्व है । निरुक्तमें सूर्य शब्दका निर्वचन प्राप्त होता है। वहां सृ गतौ धातु से या सु प्रसवे धातुसे सूर्य शब्दको निष्पन्न माना गया है। सृगतौ धातुके अनुसार सूर्यको पूर्वसे पश्चिम गति करते देखा जाता है। यह दृश्यात्मक आधार पर आधारित है। पुनः सु प्रसवेधातुसे सूर्य मानने पर कहा जा सकता है सूर्यही सभी कर्मोका उत्पादक
है।
नक्षत्र शब्दका निर्वचन तैतिरीय ब्राह्मणमें प्राप्त होता है-अमंस लोकं नक्षते तन्नक्षत्राणां नक्षत्रम्, यहां नक्षत्र शब्दमें न + क्षत का सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है। निरुक्तमें नक्षत्र शब्दका निर्वचन प्राप्त होता है। इसके अनुसार नक्षत्र शब्दमें गत्यर्थक नक्ष् धातुका योग है। नक्षत्र गति करते हैं । तै0 ब्रा0के निर्वचनमें न+क्षत्र का योग है जिसके चलते कहा जायेगा कि वे अपने प्रकाशसे प्रकाशित नहीं होते।
विश्वामित्र एक ऋषि हैं। विश्वामित्र शब्दका निर्वचन ऐतरेय ब्राह्मण में प्राप्त होता है। इसके अनुसार विश्वका मित्र विश्वामित्र कहलाता है। इनके लिए सभी मित्र होते हैं। निरुक्तमें भी विश्वामित्रको सभीका मित्र कहा गया है। पाणिनिने भी अपनी अष्टाध्यायीमें विश्वामित्र शब्दकी सिद्धिके लिए "मित्रेच!' 43 सूत्रको उपन्यस्त किया । अर्थात् विश्व + मित्र विश्वामित्र । यह विधान मात्र ऋषि अर्थमें ही मान्य है। अन्य अर्थोंमें विश्वमित्र ही होगा। ब्राह्मण ग्रन्थके निर्वचनों से लेकर पाणिनि की अष्टाध्यायी तक विश्वामित्र शब्द का
४९ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क