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स्थलों पर दिखलाया गया है। रूद्र शब्दमें रूद्धातु की पुष्टि वृहदेवतासे भी होती है। श्रीमद्भागवत पुराणमें रूद्र शब्दकी व्याख्या प्राप्त होती है
यदरोदीः सुरश्रेष्ठ सोद्वेग इव बालक:
ततस्त्वामभिधास्यन्ति नाम्ना रूद्रइति प्रजा ।। 3/12/10 इस श्लोक के अनुसार भी रूद्र शब्द में रूद् धातु का संकेत प्राप्त होता है।
पृथिवी शब्दको स्पष्ट करनेके लिए काठक संहितामें कहा गया है कि 'यदप्रथत तत्पृथिवी' यहां पृथिवी शब्द में प्रथ् विस्तारे धातुका योग स्पष्ट होता है। फैली हुई होनेके कारण पृथिवी कहलायी। इसका आधार दृश्यात्मक माना जा सकता है। शतपथ ब्राह्मणमें कहा गया है –'तद् भूमिरभवत् । तामप्रथयत् । सा पृथिव्यभवत् ।” यहां 'तामप्रथयत्' कह कर प्रथ् विस्तारेको स्पष्ट कर दिया गया । अर्थात् भूमिको ही विस्तार कर देनेके कारण पृथिवी हो गयी। निरुक्तमें भी पृथिवीको प्रथनात् पृथिवीत्याहुः कहा गया है। पृथिवीके प्रथनका इतिहास भी यहीं स्पष्ट होता है। विष्णु पुराणमें पृथिवी नाम पड़नेके कारणको स्पष्ट किया गया है
प्राणप्रदाता स पृथुर्यस्माद्भूमेरमूत्पिता ततस्तु पृथिवी संज्ञामवापाखिलधारिणी।। - वि० पु 1/14/89
इस श्लोकसे स्पष्ट है कि प्राणदान करने वाले पृथु भूमिके पिता हुए। अतः सर्वभूतधारिणीकी पृथिवी संज्ञा हुई। यहांसे पृथुसे पृथिवी संज्ञाका इतिहास स्पष्ट है। पृथुके महत्त्वप्रतिपादनके लिए संभवत: ऐसी कल्पना की गई है।
शक्वरी एक छन्द विशेष है। इसके सम्बन्धमें ऐतरेय ब्राह्मणमें कहा गया है-“यदिमांल्लोकान्प्रजापतिः सृष्ट्वेदं सर्वमशक्नोद्यदिमंकिंच तच्छक्वर्योऽभवंस्तच्छक्वरीणां शक्वरीत्वम् ।' शक्वरी शब्दमें शक धातु का प्रयोग यहां स्पष्ट हो जाता है । अशक्नोत् क्रिया पद के द्वारा शधातुका पता चल जाता है जिसकी संभावना शक्वरी शब्द में की जाती है। निरुक्त में भी शक् धातु से ही शक्वरी को निष्पन्न माना गया है-शक्वर्य ऋचः शक्नोतेः । कौषीतकि ब्राह्मण में भी शक्वरीके सम्बन्ध में कहा गया है - 'एताः शक्वर्य एताभिर्वा इन्द्रो वृत्रमशकद्धन्तुं तद्याभिर्वृत्रमशकद्धन्तुं तस्माच्छक्वर्यः" इसके अनुसार इन्द्र इन ऋचाओं से वृत्र को मार सकने में समर्थ हुए। फलतः इसका
४५ : व्युत्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क