________________
5
इस श्लोकमें सुग्रीव शब्दका निर्वचन प्राप्त है। सुग्रीव शब्दमें सु संहतका वाचक है जो पूर्व पदस्थ है तथा उत्तर पदस्थ ग्रीव शब्द है। इस निर्वचनका आधार आकृति है। 4. प्रसीद लंकेश्वर राक्षसेन्द्र लंका प्रसन्नो भव साधु गच्छ
त्वं स्वेषु दारेषु रमस्व नित्यं रामः सभार्यो रमतां वनेषु ।। इस श्लोकमें राम शब्दका निर्वचन प्राप्त होता है। रमतां क्रिया पद का रामके साथ सम्बन्ध स्पष्ट है। दोनोंमें रम् धातुका योग है। यहां राम शब्दका धात्वर्थ एवं धातु स्पष्ट करना प्रधान उद्देश्य दीख पड़ता है।
"ततः सूर्पनखा दीना रावणं लोकरावणम् अमात्यमध्ये संक्रुद्धा परुषं वाक्यमव्रवीत् ।। सुग्रीवः सत्त्वसम्पन्नो महावलपराक्रमः
किं मया खलु वक्तव्यो रावणो लोकरावणः ।।6 इन श्लोकोंमें रावण शब्दका निर्वचन प्राप्त होता है। प्रथम श्लोकमें रावणं लोकरावणम् तथा द्वितीयमें रावणो लोकरावणः शब्दोंके प्रयोगसे रावण शब्द स्पष्ट हो जाता है। समस्त लोकोंको रुलानेके कारण रावण कहा गया। रावयतीति रावणः । यह निर्वचन कर्माश्रित है। 6. यस्मात्तु विश्रुतो वेदस्त्वयेहाध्ययतो मम
तस्मात् स विश्रवा नाम भविष्यति न संशयः ।।" इस श्लोकमें विश्रवा शब्दका निर्वचन प्राप्त होता है। विश्रुतः एवं विश्रवाका सम्बन्ध यहां स्पष्ट प्रतिलक्षित है। विश्रुत शब्दमें वि + श्रुधातु का योग है। विश्रवा शब्दमें भी वि+ श्रुधातुका योग है।
“यस्माद् विश्रवसोऽपत्यं सादृश्याद् विश्रवा इव
तस्माद् वैश्रवणो नाम भविष्यति न संशयः ।।* यहां वैश्रवण शब्द का निर्वचन प्राप्त होता है। विश्रवाका पुत्र विश्रवा के ही समान उत्पन्न हुआ। अतः वैश्रवण कहलाया। यहां विश्रवाका अपत्य वैश्रवण तथा विश्रवाके सदृश वैश्रवण अर्थ विवक्षित है। यह निर्वचनं तद्धित पर आधारित है। इसमें इतिहास एवं सादृश्य भी आधारके रूप में लिया गया है। ३८ : व्यत्त्पत्ति विज्ञान और आचार्य यास्क