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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान २० ।।
जाकरि आचरण करिये सो चारित्र है, ऐसे करणसाधन भया । बहरि ‘चरणमात्रं चारित्रं' इहां भावसाधन भया । ऐसें आचरनेहीकू चारित्र कह्या ।। ___इहां अन्यवादी सर्वथा एकांती तर्क करै- जो ऐसें कहतें. सोही कर्ता, सोही करण आया. सो तो विरुद्ध है । विरुद्ध दोय भाव एककू होय नांही । ताकू कहिये, तेरै सर्वथा एकांत पक्ष है, जातें विरोध भासै है । स्याद्रादीनिकै परिणामपरिणामीकै भेदविवक्षाकरि विरोध नाही है । जैसे अमि अपने दाहपरिणामकरि इंधन• दग्ध करै है तैसें इहांभी जाननां । ऐसें कह्या- जो कर्ता करण क्रियारूप तीन भाव ते पर्यायपर्यायीकै एकपणां अनेकपणांप्रति अनेकांतकी विवक्षाकरि स्वतंत्रपरतंत्रकी विवक्षा एकभी वस्तुविर्षे अनेक स्वतंत्र कर्ता परतंत्र करणादि भाववि विरोध नाही है । बहुरि इहां कोई पूछे ज्ञानका ग्रहण आदिविर्षे चाहिये । जातें ज्ञानकरि पहलै जानिये, पीछे ताविप॑ श्रद्धान होय है । बहुरि व्याकरणका ऐसा न्याय है जो द्वंद्वसमासविौं जाके अल्प अक्षर होय सो पहली कहनां । ताकू कहिये यह युक्त नाही । दर्शन ज्ञानकी एककाल उत्पत्ति है । जा समय दर्शनमोहका उपशम तथा क्षयोपशम तथा क्षयतें आत्माकै सम्यग्दर्शन भाव होय है, ताही समय मतिअज्ञान श्रुतअज्ञानको अभाव होय, मतिज्ञान श्रुतज्ञान होय है । जैसैं सूर्यके बादला दूर
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