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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। प्रथम अध्याय ।। पान १८ ॥
निर्वाध जैसे वस्तु विद्यमान है तैसेंही ताकी कथनी है, कल्पित नाही । तातें तत्त्वार्थसूत्रविर्षे वस्तुका कथन यथार्थ है । ताका प्रथमसूत्र ऐसा
॥सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ॥ १॥ ___याका अर्थ-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र ऐ तीनूं हैं ते भेले भये एक मोक्षमार्ग है ॥ इहां सम्यक् ऐसा पद अव्युत्पन्नपक्ष अपेक्षातौ रूढ है । बहुरि व्युत्पन्नपक्ष अपेक्षा 'अंच् ' धातु गति अर्थ तथा पूजन अर्थविर्षे प्रवर्ते है, कर्ता अर्थविर्षे - किप् ' प्रत्यय है, ता” इहां प्रशंसा अर्थ ग्रहण कीया है । बहुरि यह सम्यक्पदकी प्रत्येक समाप्ति करना तीनांउपरि लगावना । तब ऐसें कहिये, सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र । इनि तीनांहीका स्वरूप लक्षणथकी वा प्रकार भेदथकी तो सूत्रकार आगें कहसी । इस सूत्रमें नाममात्र कहे । बहुरि टीकाकार व्याख्यान करै हैं । पदार्थनिका यथार्थज्ञानके विषयविर्षे श्रद्धानका ग्रहणके अर्थि तौ दर्शनकै सम्यक् विशेषण है । बहुरि जिसजिस | प्रकार जीवादिक पदार्थकी व्यवस्था है, तिसतिस प्रकार निश्चयकरि जानना, सो सम्यग्ज्ञान है । | याकै सम्यक् विशेषण विमोह संशय विपर्ययकी निवृत्तिकै अर्थि है । बहुरि संसारके कारण जे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग इनितें भये आस्रव बंध तिनकी प्रवृत्ति प्रति उद्यमी जो
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