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। सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ।। पान १७ ।।
तौ जड ठहया । बंधमोक्ष जडकै कहना निरर्थक है । बहुरि समवाय गुणगुणीकै एकता करी, तब समवायभी तो जीवतै एक हुवा चाहिये तो याकू एक कूण करेगा । जो दूसरा समवास मानिये तो अनवस्था आवै । तातें यहभी कहनां सवाध है ॥ बहुरि अद्वैतब्रह्म मानि बंधमोक्ष बतावे तो कैसे बनें । बंध तौ अविद्यासूं उपजै है ब्रह्मकै अविद्या लागै नांही । न्यारा तत्त्व मानिये तो द्वैतता आवै । अवस्तु मानिये तो अवस्तूकी कथनी कहा ? तातै यहभी माननां सवाध है । तातें जैनमत स्यादाद है । वस्तुका स्वरूप अनंतधर्मात्मक कहै है । यामें सर्वज्ञ वक्ता तथा गणधरादि यतीनिकी | परंपरातें यथार्थ कथनी है । तामें बंध, मोक्ष, तथा बंध करनेवाला, छूटनेवाला आदि सर्व व्यवस्था संभव है । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये छह द्रव्य हैं । तिनिमें जीव तो अनंतानंत | है । पुद्गल तिनितेभी अनंतानंत गुणै हैं । धर्म अधर्म आकाश एक एक द्रव्य हैं । काल असंख्याते | द्रव्य हैं । इनि सबनिकै एक एक द्रव्यके तीन कालसंबंधी अनंते अनंते पर्याय हैं । सो इनिकी कथनी सद्रूप, असदूप, एकरूप, अनेकरूप, भेदरूप, अभेदरूप, नित्यरूप, अनित्यरूप, शुद्धरूप, अशुद्धरूप इत्यादि नयविवक्षातें कथंचित् सर्व संभव हैं । बहुरि निमित्तनैमित्तिकभावनें पांच तत्त्वकी प्रवृत्ति होय आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध, मोक्ष । आस्रवबंधके भेद पुण्यपाप हैं । ऐसें कथंचित् सर्व
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