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।। सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय ॥ पान १५ ॥
ते जुदे जुदे रोगकू दूरी न करि सके तैसें मोक्षकी प्राप्तिके उपायभूत जे ज्ञान, श्रद्धान, चारित्र, ते जुदे जुदे मोक्षकू न करि सके हैं । तीनोंकी एकता है सोही मोक्षके प्राप्तिका उपाय है । सोही सूत्रकार जो श्रीउमास्वामी आचार्य सो सूत्र कहै है । यह सूत्र उपयोगस्वरूप आत्माकी सिद्धि होते ताके सुननेकी ग्रहणकरने की इच्छा होते प्रवर्ते है ॥
इहां नास्तिकमती कहै है-जो, पृथ्वी-अप-तेज-वायूका परिणामविशेष सोस्वरूप चेतनात्मक आत्मा है । मकललोकप्रसिद्ध यह मूर्ति है यातें जुदा कोई और आत्मा नांही। तातें कौनकै सर्वज्ञ| वीतरागपणां होय? वा कौंनकै मोक्ष होय? वा कौनकै मोक्षमार्गका कहनां वा प्रवर्तनां वा प्राप्तिकी इच्छा होय ? बहुरि ये सर्वही नांही तब मोक्षमार्गका सूत्र काहेकू वर्ते । ताळू कहिये है, हे नास्तिक ! स्वसंवेदनज्ञानतें आत्मा देखि, प्रत्यक्ष है कि नाही ? जो आत्मा नांही है तो “मै हो” यहु स्वसंवेदनज्ञान कौनकै है ? । बहुरि नास्तिक कहै यह स्वसंवेदन भ्रमरूप है । ताकू कहिये, सदा बाधाकरि रहित होय ताकू भ्रमरूप कैसे कहिये? तथा भ्रमभी आत्माविनां जडके होय नांही । बहुरि पृथ्वी
आदि जडविर्षे यहु स्वसंवेदन संभवै नांही । जो या स्वसंवेदनके लोप मानिये तो काहूकै अपने | इष्टतत्त्व साधने की व्यवस्था न ठहरै । तातें पृथ्वी आदि स्वरूप जो देह तातें आत्मा चेतनस्वरूप -
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