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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता॥ प्रथम अध्याय || पान १६ ॥
भिन्न तत्त्वही है ऐसा माननां । जातें चेतनका उपादान कारण चेतनही होय । जडका उपादान कारण जडही होय । ऐसे न मानिये तो पृथ्वी आदि तत्त्वभी तेरै न्यारे न ठहरै । सजातीय विजातीय तत्त्वकी व्यवस्था न ठहरै । एकतत्त्व ठरहै तो नास्तिक च्यारि तत्त्व कहै है ताकी प्रतिज्ञा बाधित होय । बहुरि नास्तिक कहै जो चैतन्य गर्भादिमरणपर्यंत है, अनादि अनंत नाही । तातें तत्त्व नांही। ताकू कहिये द्रव्यतें अनादि अनंतस्वरूप आत्मा है। पर्यायतें अनित्यभी है। सर्वथा अनित्यही माननां बाधासहित है। द्रव्य अपेक्षाभी अनादि अनंत नित्य न मानिये तो तत्त्वकी व्यवस्थाही न ठहरै ॥
बहुरि बौद्धमती सर्ववस्तु सर्वथा क्षणिक मानै है । ताकै बंधमोक्षादिक न संभवै । करे औरही, फल औरही भोगवै, तब बंधमोक्षादिका आश्रयी द्रव्य नित्य माने विनां सर्वव्यवस्थाका कहना है | प्रलापमात्र है । बहुरि सांख्य पुरुषकों सदा शिव कहै है, ताकै बंधमोक्षकी कथनी कहा ? प्रकृतिकै बंधमोक्ष है, तो प्रकृतिते जड है ताकै बंधमोक्ष कहनांभी प्रलापही है ॥ बहुरि नैयायिक वैशेषिक
गुणकै गुणीकै सर्वथा भेद मानि अर समवाय संबंधसूं एकता मानै है । सो गुण गुणी समवाय ये || तीन पदार्थ भये । तहां जीव तौ गुणी, अर ज्ञान गुण, समवाय जीवकू ज्ञानी कीया। तब जीव
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