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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १९ ॥
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ఆందకండకలలలలోనుండు
सम्यग्ज्ञानी पुरुष, ताकै कर्मका जातें ग्रहण होय ऐसी जो क्रिया ताका निमित्त जो क्रिया, ताका त्याग, सो सम्यक्चारित्र है । तथा कर्मनिका 'आ' कहिये ईषत् 'दान' कहिये खंडन ताका निमित्त जो क्रिया ताका त्याग, आत्माकै एकदेशकर्मक्षपणांका कारण परिणामविशेष ताकाभी त्याग, तथा कर्मनिका समस्तपणे क्षयकारणपरिणाम चौदह गुणस्थानके अंतसमयवर्ती सो सम्यक् निवृत्तिरूप चारित्र है, ऐसाभी अर्थ है ॥ याकै अज्ञानपूर्वक चारित्रकी निवृत्तिकै अर्थि सम्यक् . विशेषण है । जातें इनि तीननिकी निरुक्ति ऐसी है, ‘पश्यति' कहिये जो श्रद्धान करै सो दर्शन है, इहांतो कर्तृसाधन भया। तहां करनहारा आत्मा है सोही दर्शन है । बहुरि ‘दृश्यते अनेन' कहिये श्रद्धिये याकरी सो दर्शन, इहां करणसाधन भया । बहुरि ‘दृष्टिमात्रं' कहिये श्रद्धाना सो दर्शन, इहां भावसाधन भया । दर्शनक्रियाही• दर्शन कह्या । ऐसेंही — जानाति ' कहिये जो जानै सो ज्ञान, इहां कर्तृसाधन भया । जानने वाला आत्माहीकू ज्ञान कह्या । बहुरि ' ज्ञायते अनेन ज्ञानं'
जाकरि जानिये सो ज्ञान, इहां करणसाधन भया । बहुरि — ज्ञप्तिमात्रं ज्ञानं ' जाननां सो ज्ञान, | इहां भावसाधन भया । जाननरूप क्रियाकू ज्ञान कह्या । बहुरि — चरति इति चारित्रं' इहां आचरण करै सो चारित्र है. ऐसे कर्तृसाधन भया । जातें आत्माही चारित्र है। बहुरि ‘चर्यते अनेन ' इहां
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