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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १४ ॥ धर्म अधर्म सुख दुःख संस्कार यत्न गुण है । तिनिका सर्वथा नाश होय है सो मोक्ष है । सो यहूभी कल्पना झूटी है । विशेषनिकरि शून्य तो अवस्तु है ॥ बहुरि बौद्धमती कहे है-जैसे दीपग
बुझि जाय प्रकाशरहित होय जाय । तैसे आत्माभी ज्ञानादिप्रकाशरहित होय जाय तब निर्वाण | कहिये । सो यहूभी कहनां गधाके सींगसारिखा तिनिके वचनकरिही आवै है ॥ आदिशब्दतें वेदांती ऐसा कहै है जो जैसे घट फूटिजाय तब घटका आकाश प्रगट होय तैसे देहका अभाव होय तब सर्वही प्राणी परमब्रह्ममें लय होय जाय है । ब्रह्मका रूप आनंदस्वरूप है। जहां अत्यंत सुख है, ज्ञानहीकरि ग्राह्य है, इंद्रियगोचर नांही सो मोक्षविर्षे पाइए है ऐसा कहै है । सोभी कहना यथार्थ नांही । जाते प्राणी तो जुदे जुदे अपने स्वरूपमैं तिष्ठे है । परब्रह्म में लीन होना कैसे संभवै? इनकू आदि जे अनेक मत हैं ते अपनी अपनी बुद्धि” अनेक कल्पना करै हैं । सो मोक्षका स्वरूप यथार्थ सूत्रकार आगे कहसी सो जाननां ॥ बहुरि या मोक्षकी प्राप्ति के उपायप्रति भी अन्यवादी विसंवाद करे हैं । केईक कहै हैं चारित्रादिककी अपेक्षा नाही । केईक कहै हैं ज्ञानचारित्रविना श्रद्धानमात्रहीतें मोक्ष हो है । केइक कहै हैं ज्ञानरहित चारित्रमात्रहीने मोक्ष होय है ऐसे कहै हैं । सो यह कहनां अयुक्त है । जैसे रोगीकै रोगके दूरि होने के कारन जे औषधका ज्ञान, श्रद्धान, आचरण, |
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