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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १२ ॥
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बहुरि सांख्यमती तथा नैयायिकमती कहै, जो, सर्वज्ञ तो माननां परंतु कर्मका नाशकरि सर्वज्ञ होय है यह वणे नाही । ईश्वर तो सर्वथा सदामुक्त है, सदाही सर्वज्ञ है। ताडूं कहिये, जो ऐसा सर्वज्ञ ईश्वर जो शरीररहित कहोगे तो मोक्षमार्गका उपदेशक न बणैगा, शरीरविना वचनकी प्रवृत्ति नांही । बहुरि शरीरसहित कहोगे तो शरीरकर्मकाही कीया होहै । यासंबंधी सुखदुःखादिक सर्व वाकै ठहरेंगे । तातें घातिकर्मका नाशकरि सर्वज्ञ होय । ताकै अघाति कर्मका उदय रहै । तेते शरीरसहित अवस्थान रहै । तातें वचनकी प्रवृत्ति विना इच्छा होय । ताहीते मोक्षमार्गका उपदेश प्रवर्ते यह युक्त है ॥ याका विशेष वर्णन आगें होयगा ॥ बहुरि बौद्ध सर्वज्ञ तो मानै परंतु तत्त्वका स्वरूप सर्वथाक्षणिक स्थापै । यातें ताकै तो मोक्षमार्गका उपदेशकी प्रवृत्ति संभवैही नाही ॥ बहुरि नास्तिकवादीकै कछुही संभवै नाही ॥ इनि सर्वमतनिका संवाद श्लोकवार्तिकवि कीया है तहांतें जानना। इहां ग्रंथविस्तार वधिजाय तातें संक्षेप लिख्या है ॥ आगै सर्वार्थसिद्धि टीकाकार सूत्रका प्रारंभका संबंध कहै हैं ॥
कोई भव्य, निकट है सिद्धि जाकै, ऐसा बुद्धिमान अपने हितका इच्छक है। सो किसी मुनिनके रहनेयोग्य स्थानक उद्यान, परम रमणीक जहां सिंहव्याघ्रादिक क्रूर जीव नाहीं, भले
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