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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ।। पान १३ ॥
जीवनका रहनेका ठिकाणां ताविषै मुनिनिकी सभाविषै बैठे, विनाही वचन अपने सरीरहीकी शांतमुद्राकरि सानूं मूर्तिक मोक्षमार्गकों निरूपण करते, युक्ति तथा आगमविषै प्रवीण, परका ि नाही है एक कार्य जिनकै, भले भले बडे पुरुषनिकरि सेवने योग्य, जे निर्ग्रथआचार्यनिमैं प्रधान, तिनिहि प्राप्त होयकरि विनयसहित पूछता हुवा - हे भगवान् या आत्माका हित कहां है? आचार्य कहते भये आत्माका हित मोक्ष है । तब फेरी शिष्य पूछी जो, मोक्षका कहां स्वरूप है? अरु याकी प्राप्तिका उपाय कहां है? तब आचार्य कहै है जो यहू आत्मा जब समस्त कर्ममलकलंकरहित हो तब शरीरकरिभी रहित होय, तव छद्मस्थ के चिंतवनमें न आवै, अरु स्वभावही भये ऐसे ज्ञानादि गुण जामैं पाइए, तथा निराबाध सुखस्वरूप अविनश्वर आत्माकीही इस संसार अवस्था अन्य जो अवस्था सो मोक्ष है । सो यहु मोक्ष अत्यंत परोक्ष है । यातें छद्मस्थ जे अन्यवादी, आपकूं तीर्थंकर मानें ते याके स्वरूपकूं न पहुंचती जो वाणी ताकरि अन्यथा कल्पै
॥ प्रथम तो सांख्यमती कहै है- पुरुषका स्वरूप चैतन्य है । सो स्वरूप ज्ञेयाकारके जाननैतैं पराङ्मुख है, ऐसा मोक्ष कहै है । सो यह कहनां छताही अणछतारूप है । जातै निराकार है सो जडवत् है, गधा के सींगवत् कल्पना है || बहुरि वैशेषिकमती कहै है- आत्माविषै बुद्धि इच्छा द्वेष
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