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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। प्रथम अध्याय ॥पान १० ॥
करनेयोग्य स्थान वणे हैं । तिनमें पुरुषकी इच्छा वा विनां इच्छा अक्षरात्मक वचन प्रवर्ते है । ऐमें शद सर्वथानित्य कहनां प्रमाणविरुद्ध है । पुद्गलद्रव्य द्रव्यअपेक्षा तो नित्य है बहुरि पर्याय अपेक्षा अनित्य है । सो शद पुरुषके निमित्ततें वर्णात्मक होय परिणमै है । श्रोत्र इंद्रियगेचार होय है । सर्वथानित्य तौ प्रमाणगोचर नाही । तातें पौरुषेयही आगम प्रमाणसिद्ध है । याका संवाद श्लोक- | वार्तिक में है तहांतें समझना । बहुरि मीमांसक कहै हैं; जो हमारै आम्नाय अकृत्रिम है तथापि जैमिनीय आदि आप्तके कहै सूत्र प्रमाणभूत हैं । तातें तुमारे सर्वज्ञ वीतरागके प्ररूपे सूत्र कहौ हौ सो यह प्रमाणसिद्ध नाही । ताका समाधान-सूत्रका व्याख्याता सर्वज्ञ वीतराग न होय तो वाके वचन प्रमाण नाही । अकृत्रिम आम्नाय पुरुषविनांही आपआपने अर्थकों कहै नांही । तातें यथोक्त पुरुष आम्नायका कहनहारा चाहिये। तुमभी प्रमाणका विशेषण ऐसाही करो हो, जो प्रमाण निर्दोषकारणते उपजै है । तातें काहेको अपौरुषेयपणां निष्कारण पोषणां । बहुरि इहां मीमांसक कहै, जो, तुमनें आप्तका विशेषण सर्वज्ञ कह्या सो सर्वज्ञका जनावनहारा ज्ञापक प्रमाण नांही। इंद्रियनितें सर्वज्ञ दिखता नाही । कोई ताका एकदेश चिन्ह दिखता नाही । सर्वज्ञसमान कोई वस्तु नांही । किसी अर्थका संबंध नाही । वेदमें लिख्या नाही। ऐसे पांचूही प्रमाणकै गोचर नाही, अभावही सिद्ध होय
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