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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय ॥ पान ९॥ .
कहिये । ऐसा शास्त्रका लक्षण यामें पाइए है तातें शास्त्र कहिये । बहुरि यामैं निर्बाध तत्त्वार्थका प्ररूपण है तातें तत्वार्थशास्त्र कहिये । बहुरि शास्त्राभासमें ऐसा लक्षण होय तौ तहां तत्त्वार्थका प्ररूपण नांही तातें ते शास्त्र नांही । इहां कोई पूछे याउपरांति और शास्त्रकू शास्त्रसंज्ञा कैसी आवैगी? ताका उत्तर; जो और शास्त्र तत्त्वार्थक प्ररूपणके हैं ते सर्वही याके एकदेश हैं । बहुरि द्वादशांग है सो महाशास्त्र है । यासारिखे अनेक शास्त्र तामैं गर्भित है । ऐसें यहु तत्त्वार्थशास्त्र सर्वज्ञवीतराग मोक्षमार्गका प्रवर्तक पुरुषकू सिद्ध होते प्रवा है । तातें पुरुषकृत कहिये । ऐसा पुरुष वंदनायोग्य है ॥
इहां मीमासकमतका आश्रय ले अन्यवादी कहै, जो, शद सर्वथानित्य कूटस्थ सर्वदेशमैं व्यापक एक है सो तामें वर्ण पद वाक्य सर्व शाश्वते वसै हैं। पुरुष वक्ता है सो ताकी व्यक्तीकू प्रगट करै है । तातें वेद अनादिनिधन अपौरुषेय आगम है । पुरुषकृत नांही । ताका समाधान । शद्ध है सो तौ पुद्गलद्रव्यका पर्याय है। श्रोत्र इंद्रियकरि ग्रह्याजाय है, जड है । यामैं स्वयमेव वर्णपदवाक्यरूप होना संभवै नांही । पुरुषके अनादि कर्मके संयोगते पुद्गलमयशरीरका संबंध है । तथा अंगोपांग नामा नामकर्मके उदयतें हृदय कंठ मूर्द्ध जिव्हा दंत नासिका ओष्ठ तालु आदि अक्षरनिके उच्चार
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