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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । प्रथम अध्याय ।। पान ७ ॥
कषायतें अन्यथा कहै । सो प्रमाण नांहीं । तातैं सर्वकौं जाणै, काहूतें रागद्वेष न होय, ताहीके वचन प्रमाण होय । वैही वस्तूका स्वरूप यथार्थ प्ररूपै । याही तैं ऐसे विशेषणयुक्तकों नमस्कार कीया । सो ऐसे तीर्थंकर तथा सामान्यकेवली अरहंत भगवान् हैं | इनहीं परमगुरु कहिये | बहुरि जिनि एकदेशघातिकर्मका नाश एकदेशपणें परोक्षसमस्ततत्त्वनिका संक्षेपज्ञान है, तथा तिस संबंधी रागद्वेषभी जिनके नाही है ते अपरगुरु जानने । ते गणधरादि सूत्रकारपर्यंत आचार्य जानने । बहुरि जे सर्वथा एकांततत्त्वका प्ररूपण करे हैं ते गुरु नांही हैं तिनिके वचन प्रमाणविरुध्द हैं, ते अपने तथा परके घातक हैं, तिनिकों नमस्कार भी युक्त नांही ॥
अथवा इहां ऐसा आशय जानना । जो सर्वज्ञ वीतराग आप्त होय सोही शास्त्रकी उत्पत्ति तथा शास्त्रका यथार्थज्ञान होनेकौ कारण है । तातै शास्त्रकी आदिविषै निर्विघ्नपणें शास्त्रकी समा सीकै अर्थी ऐसेही विशेषणयुक्तकों नमस्कार करना योग्य है । इहां कोई कहै, आप्तके नमस्कार पापका नाश होय है तातैं जिनका उपशम होय तब शास्त्रकी समाप्ति निर्विघ्नपणें होय है । तातें ताकूं नमस्कार योग्य है || ताकूं कहिये ; पापका नाश तौ पात्रदानादिकतें भी होय है सो आप्तका नमस्कारका नियम कहां रह्या? कोई कहै; परममंगल आप्तका नमस्कारही है । सो यहभी न
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