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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनका पंडित जयचंदजीकृता || प्रथम अध्याय ॥ पान ६ ।।
प्रारंभ कीया है। तहां मुख्य तौ सर्वार्थसिद्धि नाम संस्कृत टीकाका आश्रय है । बहुरि जहां जहां विशेष लिख्या है सो तत्त्वार्थवार्तिक श्लोकवार्तिकका आश्रय जानना । याविषै कहीं भूलि चूक होय तौ विशेषज्ञानी सोधियो ||
तां प्रथमही सर्वार्थसिद्धिटीकाकार मंगल अर्थि आप्तका असाधारणविशेषणरूप श्लोक रच्या है, सो लिखिये हैं |
मोक्षमार्गस्य नेतारं । भेत्तारं कर्मभूताम् ॥
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां । वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ १ ॥
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याका अर्थ - मोक्षमार्ग के प्रवर्ताविनहारे, कर्मरूप पर्वत के भेदनहारे, समस्ततत्त्वनिके जाना - नहारेको मेरै तिनि गुणनकी प्राप्तीके अर्थि मैं वंदौ हौं ।
भावार्थ - इस शास्त्रविषै मोक्षमार्गका उपदेश है । सो जो घातिकर्मका नाशकरि सर्वज्ञ वीतराग भया होय, सोही मोक्षमार्गका प्रवर्ताविनहारा आप्त है । तिसहीकूं नमस्कार किया है । जा सर्वज्ञवीतरागका प्रवतीयाही मोक्षमार्ग प्रमाणसिध्द होय । काहेतैं ? जातें जो सर्वज्ञ न होय अज्ञान अयथार्थभी कहै । तथा रागद्वेषसहित होय तौ क्रोध, मान, माया, लोभ आदि
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