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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान ४ ॥
नकी व्युच्छित्ति भई अरु आचार यथावत् रहवोही कीया। पीछें दिगंबरनिका आचार कठिन, सो कालदोष यथावत् आचारी विरले रह गये । तथापि संप्रदाय में अन्यथा प्ररूपणा तौ न भई । तहां श्रीवर्द्धमानस्वामीकों निर्वाण गये पीछे छहसे तियासी वर्ष पीछे दूसरे भद्रवाहू नाम आचार्य भये । तिनिके पीछे केतेक वर्ष पीछे दिगंबरनिकैं गुरुनिके नामधारक च्यार शाखा भई । नंदी, सेन, देव सिंह ऐसे । इनिमैं नंदिसंप्रदाय मैं श्रीकुंदकुंद मुनि तथा श्रीउमास्वामी मुनि तथा नेमिचंद्र, पूज्यपाद, विद्यानंदी, वसुनंदी आदि बडेबडे आचार्य भये । तिनि विचारी; जो शिथिलाचारी श्वेतांबरनिका संप्रदाय तौ बहुत वध्या, सो तौ कालदोष है । परंतु यथार्थ मोक्षमार्गकी प्ररूपणा चलि जाय ऐसे ग्रंथ रचिये तौ केई निकटभव्य होय ते यथार्थ समझ करे | यथाशक्ति चारित्र ग्रहण करै, तौ यह बडा उपकार है । ऐसें विचारि केईक मोक्षमार्गकी प्ररूपणा के ग्रंथ रचे । तत्त्वार्थसूत्र, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, समयसार मूलाचार, गोमटसार, त्रिलोकसार, लब्धिसार, क्षपणासार, आदिक तथा तिनिका अर्थ अविच्छेद होनेके अर्थ तिनिकी टीका करी । बहुरि दूसरा सेनसंप्रदाय में भूतबली, पुष्पदंत, वृषभसेन, सिद्धसेन, समंतभद्र, जिनसेन, गुणभद्र आदि बडेबडे आचार्य भये । तिनिनैं षड्खंडसूत्र, धवल, जयधवल, महाधवल तथा
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