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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ।। प्रथम अध्याय ॥ पान ५॥
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प्राकृत आदिपुराण आदि ग्रंथ रचे । तथा सिद्धसेन, समंतभद्र आदि स्याद्वादविद्याके अधिकारी भये । तत्त्वार्थसूत्रनिकी महाभाष्य रची। और ग्रंथ बडे बडे रचे । जिनसेन. आदिपुराण संस्कृत रच्या। गुणभद्र- उत्तरपुराण संस्कृत रच्या । बहुरि इसही संप्रदायमैं काष्ठासंघ प्रवर्त्या । बहुरि देवसंप्रदायमें अकलंकदेव भये । ते स्याद्वादविद्याके अधिकारी भये । तिनि. प्रमाणप्रकरण रचे ।
औरभी केई भये, तिनिने बडे बडे ग्रंथ रचे। सोमदेवनें यशस्तिलक काव्य कीया । बहुरि सिंहसंप्रदायमैं वादीभसिंह आदि मुनि भये । तिनिने बडे बडे ग्रंथ बणाये। ऐसे च्यारोंही संप्रदायमैं यथार्थ प्ररूपणा तथा आचार चल्या आया । बहुरि अब इस निकृष्टकालमैं दिगंबरनिका संप्रदायमैं यथावत् आचारका तौ अभावही है । जो कहीं है तो दूर क्षेत्रमैं होगा । बहुरि मोक्षमार्गकी प्ररूपणा तौ ग्रंथनिके माहात्म्यतें वर्ते है । तहां मेरै ऐसा विचार भया; जो श्रीउमास्वामिकृत दशाध्यायीरूप तत्त्वार्थशास्त्र है, ताकी संस्कृतटीका तौ गंधहस्तिमहाभाष्य है । अर लघुटीका सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वा. र्थवार्तिक-ताकू राजवार्तिकभी कहै है-तथा श्लोकवार्तिक है। ते तो पंडितनिके समझनें पढने लायक है। मंदबुद्धिनिका प्रवेश नाही । तातें याकी संक्षेपार्थरूप देशभाषामय वचनिका करिये | तो मंदिबुद्धि हू वांचि समझै । तत्त्वार्थकी श्रद्धा करै तौ बडा उपकार है । यह जानि वचनिकाका |
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