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॥ सर्वार्थसिद्भिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ।। पान ८ ॥
कहनां । धर्मके अंग हैं ते सर्वही मंगल हैं ॥ कोई कहै ; नास्तिकताका परिहार तो आप्तकुं नमस्कार कीयें होय है, याहीते श्रध्दानी पुरुष शास्त्रको आदरे है । ताकू कहिये, नास्तिकताका परिहार तो मोक्षमार्गके समर्थन करने ही होय है । आप्तके नमस्कारका नियम कैसें रहै? कोई कहै; शिष्टाचार पालनेकों आप्तकू नमस्कार करनांही। तहांभी एही उत्तर । तातें यहूही युक्त है, शास्त्रकी उत्पत्ति तथा ताका ज्ञान होनेंकू आप्तही कारण है । ताही हेतुते आप्तडूं नमस्कार युक्त है, ऐसा आशय जानना । इहां कोई कहै ; वक्ताका सम्यग्ज्ञानही शास्त्रकी उत्पत्ति तथा ज्ञान होनेकू कारण है, आप्तकाही नियम कैसे कहौ हौ? तहां ऐसा उत्तर, जो वक्ताका सम्यग्ज्ञानभी गुरूपदेशक आधीन है। गणधरदेवनकै भी सर्वज्ञके वचनके अनुसार सम्यग्ज्ञान है । तातें आप्तहीका नियम है ॥ बहुरि इहां कोई पूछ; तुम तत्त्वार्थशास्त्रकी वचनिका करौ हो, सो याकू तत्त्वार्थशास्त्र ऐसा नाम कैसे आया? ताका उत्तर, शास्त्रका लक्षण यामें पाइए है । कैसे? सोही कहिये है । अक्षरनिके समुदायकू तौ पद कहिये । बहुरि पदनिके समुदायकू सूत्र कहिये ताकू वाक्य भी कहिये, योगभी कहिये, लक्षणभी कहिये । बहुरि सूत्रके समूहळू प्रकरण कहिये । बहुरि प्रकरणके समुदायकू आह्निक कहिये । बहुरि आह्निकके समूहळू अध्याय कहिये । अध्यायके समूहळू शास्त्र |
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