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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान १२ ॥ ఆకent बहुरि सांख्यमती तथा नैयायिकमती कहै, जो, सर्वज्ञ तो माननां परंतु कर्मका नाशकरि सर्वज्ञ होय है यह वणे नाही । ईश्वर तो सर्वथा सदामुक्त है, सदाही सर्वज्ञ है। ताडूं कहिये, जो ऐसा सर्वज्ञ ईश्वर जो शरीररहित कहोगे तो मोक्षमार्गका उपदेशक न बणैगा, शरीरविना वचनकी प्रवृत्ति नांही । बहुरि शरीरसहित कहोगे तो शरीरकर्मकाही कीया होहै । यासंबंधी सुखदुःखादिक सर्व वाकै ठहरेंगे । तातें घातिकर्मका नाशकरि सर्वज्ञ होय । ताकै अघाति कर्मका उदय रहै । तेते शरीरसहित अवस्थान रहै । तातें वचनकी प्रवृत्ति विना इच्छा होय । ताहीते मोक्षमार्गका उपदेश प्रवर्ते यह युक्त है ॥ याका विशेष वर्णन आगें होयगा ॥ बहुरि बौद्ध सर्वज्ञ तो मानै परंतु तत्त्वका स्वरूप सर्वथाक्षणिक स्थापै । यातें ताकै तो मोक्षमार्गका उपदेशकी प्रवृत्ति संभवैही नाही ॥ बहुरि नास्तिकवादीकै कछुही संभवै नाही ॥ इनि सर्वमतनिका संवाद श्लोकवार्तिकवि कीया है तहांतें जानना। इहां ग्रंथविस्तार वधिजाय तातें संक्षेप लिख्या है ॥ आगै सर्वार्थसिद्धि टीकाकार सूत्रका प्रारंभका संबंध कहै हैं ॥ कोई भव्य, निकट है सिद्धि जाकै, ऐसा बुद्धिमान अपने हितका इच्छक है। सो किसी मुनिनके रहनेयोग्य स्थानक उद्यान, परम रमणीक जहां सिंहव्याघ्रादिक क्रूर जीव नाहीं, भले sease sentertainer For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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