________________
श्रीसंवेगरंगशाला
४१
मनोहर दाँत की कान्ति से आकाश तल को उज्जवल करते हो इस तरह श्री गौतमस्वामी ने इस प्रकार कहा :
हे देवानु प्रिय ! हे श्रेष्ठ गुण रत्नों की श्रेष्ठ खान ! हे अति विशुद्ध बुद्धि के भण्डार ! तुमने यह सुन्दर पूछा है क्योंकि-कल्याण की परम्परा से पराङमुख पुरुषों की सुदृष्ट परमार्थ को जानने की मनोरथ वाली बुद्धि भी कभी भी नहीं होती है । इसलिए हे निरूपम धर्म के आधारभूत दुर्धर और प्रकृष्ट ताप के भार को उठाने वाले महामुनि महसेन ! यह मैं कहता हूँ, उसे तुम सुनो। इस तरह दीक्षित महसेन मुनि ने साधु और गृहस्थ की आराधना को जिस तरह पूछा था और श्री गौतम प्रभु ने जिस तरह महसेन मुनि वरिष्ठ को कहा था उसी तरह मैं अर्थात् जैनचन्द्र सूरि सूत्रानुसार कहता हूँ। ___इस जैन शासन में राग-द्वेष को नाश करने वाला और अनुपकारी भी अन्य जीवों को अनुग्रह करने में तत्पर श्री जिनेश्वर देव ने इस आराधना को शिवपंथ का परमपंथ रूप कहा है । अति गहरे जल वाले समुद्र में गिरे हुए रत्न के समान व्यवहार जय के मत अनुसार कोई जीव भाग्यदेन से यदि किसी तरह उस आराधना को प्राप्त करता है, तो उसकी नित्य उत्तरोत्तर वृद्धि द्वारा प्रति समय में आत्मा को विशिष्ट कार्यों में स्थिर करना चाहिए। इस तरह करने से श्री जैन शासन में प्रसिद्ध आराधना के क्रम में कुशल आत्मा को जैसे विशाल निगोद भरे तालाब में कभी कछुआ चन्द्र दर्शन प्राप्त करता है, वैसे मोक्ष प्राप्त होता है। और उसका मनुष्य जीवन सफल होता है। इस सम्बन्ध में अधिक कहने से क्या प्रयोजन ? अब जिसमें ज्ञान दर्शन-चारित्र
और तप का निरतिचार आराधना करने की है, वह चार स्कन्ध वाली आराधना यहाँ कहते हैं। यह आराधना सामान्य और विशेष रूप से दो प्रकार की है, उसमें प्रथम सामान्य से कहते हैं :
ज्ञान की सामान्य आराधना :-सूत्र में पढ़ने का जो समय कहा है, उस सूत्र को उस काल में ही, सदा विनय से, अतिमानपूर्वक, उपधान पुरस्सर तथा जो जिसके पास अध्ययन करना हो उसका उस विषय में निश्चय रूप अनिन्हवणपूर्वक, सूत्र अर्थ और तदुभय को विपरीत रूप नहीं परन्तु शुद्ध रूप इस तरह ज्ञान के आठ आचार के पालनपूर्वक जो श्रेष्ठ वाचना, पृच्छना, परावर्तना, परूपणा धर्म कथा और उसी की ही परम एकाग्रता से जो अनुप्रेक्षा करना। ये पांच प्रकार का स्वाध्याय । तथा दिन में या रात्री में करना उसमें भी अकेले अथवा पर्षदा में रहकर करना उसमें भी सुखपूर्वक सोये हए या जागत दशा से करना, उसमें भी खड़े रहकर, बैठकर या थक जाने से कभी स्थिर