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.. शादि पांच द्रव्य हैं, तिनिकै ज्ञानते तादात्म्यकी अनुपपत्ति है, तत्स्वरूपपणा बने नाहीं । तातें अन्यसमय पक्षके अभावते ज्ञान है सो आत्मा है, ऐसा दूजा पक्ष आया । याते श्रुतज्ञान भी आत्मा ही है,
ऐसे होते जो आत्माकू जानें है सो श्रुतकेवली है ऐसा हि आबे है, सौ परमार्थही है। ऐसे ज्ञान " अर ज्ञानीभेदकरि कहता जो व्यवहार, तिसकरि भी परमार्थमात्रहि कहिये है, तिसते जुदा ' ' अधिक तौ कछु भी न कहे है। अथवा जो श्रुतकरि केवल शुद्ध आत्माकू जाने है सो श्रुतकेवली ॥ _ है । ऐसें परमार्थका लक्षणके कहेविना कहनेका असमर्थपणा है तातें जो सर्वश्रुतज्ञानकू जाने है । फ़ सो श्रुतकेवली है ऐसा व्यवहार है सो परमार्थ के प्रतिपादकपणेतें आत्माकू प्रतिष्ठारूप करे है, 卐 - प्रगटरूप स्थापे है।
भावार्थ-जो शास्त्रज्ञानकरी अभेदरूप ज्ञायकलात्र शुद्ध आत्मा जाने, सो श्रुतकेबली है, + यह तो परमार्थ है । बहुरि जो सर्वशास्त्रज्ञानकुंजानै सो श्रुतकेवली है, यह ज्ञान है सो ही आत्मा ।
है, सो ज्ञानकू जाण्या सो आत्माहीकू जान्या सोही परमार्थ है, ऐसें ज्ञान ज्ञानीकै भेद कहता । 卐 जो व्यवहार तिसने भी परमार्थ ही कह्या, अन्य तो किछु न कहा। बहुरि ऐसा भी है जो
परमार्थका विषय तौ कथंचित् वचनगोचर नाहीं भी है तातें व्यवहारनय ही प्रगटरूप आत्माकू ॐ कहे हैं ऐसें जानना । आगे फेरि प्रश्न उपजे है, जो पहलै कह्या था जो व्यवहारकू अंगीकार' - न करना । सो जो परमार्थका कहनहारा है, तो ऐसा व्यवहारकू अंगीकार क्यों न करना ? ताका । उत्तरका सूत्र कहे हैंके नीचे लिखी दो गाथाओंकी आत्मख्याति संस्कृत और हिन्दी टोका उपलब्ध नहीं है इसलिये नहीं छापी गई । तात्पर्यवृत्ति टीका मिलती है वह छापी है। ___णाणहमि भावणा खलु कादव्या दंसणे चरित्ते य ।
ते पुण तिण्णिवि आदा तहमा कुण भावणं आदे॥
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