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.. कल्याण होऊ, ऐसा याका अर्थ है, तब सो म्लेच्छ तत्काल उपज्या जो बहुत आनंद, तिसमयी गजो अश्रुपात, तिसकरि झलकते भरि आये हैं लोचनपात्र जाके, ऐसा हुवा संता, तिस स्वस्ति-:
शब्दका अर्थ समझे ही है। तैसें ही व्यवहारी है, सोऊ आत्मा ऐसा शब्द कहते संते जैसा .. आत्मशब्दका अर्थ है, ताका ज्ञान बाह्य वतें है । तात याका अर्थ किछू न पावता संता मींढे.. की ज्यों नेत्र उघाडि टिमकारै विना देखताही रहै। अर जब व्यवहारपरमार्थमार्गविर्षे चलाया । है सम्यग्ज्ञानरूप महारथ जाने, ऐसा सारथीसारिखा सो ही आचार्य तथा अन्य कोई आचार्य । व्यवहारमार्गमैं तिष्ठिकरि दर्शनज्ञानवारित्रनिकू निरंतर प्राप्त होय सो आत्मा है, ऐसा आत्मशब्दका अर्थ कहै, तब तत्कालही उपज्या प्रचुर आनंद जामें पाईये ऐसा अंतरंगविर्षे सुन्दर अर बंधुर
कहिये प्रबंधरूप ज्ञानरूप तरंग जाके, ऐसा व्यवहारी जन, सो तिस आत्मशब्दका अर्थ पावै॥ 卐 ही । ऐसें जगत् तो म्लेच्छस्थानीय जानना बहुरि व्यवहारनय म्लेच्छभाषास्थानीय जानना। __ यातें व्यवहारकू परमार्थका कहनहारा मानि स्थापना योग्य है । अथवा ब्राह्मणकू म्लेच्छ न होना 卐 इस वचन व्यवहारनपकू सर्वथा उपादेय ही मानि अंगीकार करना। । भावार्थ-लोक शुद्धनयकू जाने नाही, जाते शुद्धनयका विषय अभेद एकरूप वस्तु है, बहुरि । " अशुद्धनयहीकू जाने है, जाते याका विषय भेदरूप अनेकप्रकार है। तातै व्यवहारके द्वारे ही
शुद्धनयरूप परमार्थकू समझे है । तातें व्यवहारनय परमार्थका कहनहारा जानि, याका उपदेश ।
करे है । इहां ऐसा न जानना, जो व्यवहारका आलंबन करावे है। इहां तो व्यवहारका आलंबन, म छुडाय, परमार्थकू पहुंचा है ऐसा जानना । आगें प्रश्न उपजे है जो, व्यवहारनयकै परमार्थका .. प्रतिपादकपणा कैसे है ? ताका उत्तरका सूत्र कहे है । गाथा
जो हि सुदेणभिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं । तं सुदकेवलिमिसिणो भणति लोगप्पदीवयरा ॥९॥
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