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'बीच' की व्युत्पत्ति
श्री आर्येन्द्र शर्मा एम० ए०, डी-फिल० हिन्दी का वीच' शब्द “मध्य, केन्द्र, अन्तर, अवकाश, स्थान" आदि अर्थों में तथा अधिकरण कारक मे, 'मे' के स्थान पर, प्रयुक्त होता है। अन्य आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में भी यह शब्द, इन्ही अर्थो मे, वर्तमान हैपजाबी में 'विच्च', गुजराती मे 'वचे', 'विचे', 'वच्चे', नेपाली में 'विच', इत्यादि । व्रजभाषा तथा अवधों में भी 'विच' अथवा 'वीच' का प्रयोग वरावर मिलता है।
___ इन सब शब्दो का मूल प्राकृत (तथा अपभ्रश) का 'विच्च', (सप्तमी एक० में 'विच्चम्मि', 'विच्चि', 'विच्चे') शब्द है । हेमचन्द्र के प्राकृत-व्याकरण' में दो स्थलो पर 'विच्च' शब्द का उल्लेख है-अध्याय ४, सून ३५० नथा सूत्र ४२१ । इनके अतिरिक्त, पाइयसद्दमहण्णवो' के अनुसार, पुष्पमाला प्रकरण ४२७, निगाविरामकुलक १६, कुमारपालचरित तथा भविसत्तकहा ५६ ११ में भी 'विच्च' शब्द मिलता है । पाइयसहमहण्णवो में 'विच्च' के दो अर्थ दिये गये है, "वीच, मध्य" तथा "मार्ग, रास्ता"। दूसरे अर्थ ("मार्ग") के उदाहरणो के लिए पा० स० म० ने हेमचन्द्र के उपर्युक्त दोनो सूत्रो तथा कुमारपालचरित और भविसत्तकहा के स्थलो का निर्देश किया है। वास्तव मे पा० स० म० ने "मार्ग" अर्थ हेमचन्द्र के
"विषण्णोक्तवर्त्मनो बुन्नवृत्तविच्चम् । ४ ४२१ ।
(अपभ्रश में संस्कृत के 'विषण्ण', 'उक्त' तथा 'वर्त्मन्' शब्दो के स्थान पर क्रमश 'वुन्न', 'वुत्त' तथा 'विच्च' शब्दो का आदेश होता है)।"
इम सूत्र के आधार पर दिया है। किन्तु, जैसा आल्सडोर्फ' ने सिद्ध किया है, इन सभी स्थलो पर प्रकरण, सन्दर्भ आदि की दृष्टि से 'विच्च' का अर्थ "मध्य" अथवा "अन्तर" ही हो सकता है, "गर्ग" नहीं। इसके अतिरिक्त हेमचन्द्र के स० 'वम' प्रा० 'विच्च', इस समीकरण में ध्वनि-गरिवर्तन सम्बन्धी कठिनता भी स्पष्ट है । '-' के स्थान पर 'वि-'आदेश और -म-के लोप को किसी भी तरह नियमानुकूल नही कहा जा सकता। 'वर्त्म-' के '-त्के स्थान पर 'च्- हो जाना भी सम्भव नहीं। नियम के अनुसार स० 'त-' का प्राकृत में 'ट्ट होना चाहिए। स्वय हेमचन्द्र ने अध्याय २, सूत्र ३० में यही नियम बता कर स० 'कैवर्त-'>प्रा० कवट्ट', स० 'वति->प्रा० वट्टी' आदि उदाहरण दिये है। फिर पाली में स० 'वर्त्म- का परिवर्तित रूप 'वटुम'- ("दीघनिकाय", भाग २, पृ० ८, तथा "सयुत्तनिकाय", भाग ४, पृ० ५२) पहले ही से वर्तमान है, जो, गाइगर ("पाली लितरातूर उद् प्राखे"५८ २) के अनुसार 'वम-' से * वट्टम', *वट्टम- से *वट्म', और 'वट्म-से स्वरभक्ति द्वारा 'वटुम-', इस प्रकार विकसित हुआ है। स्वय प्राकृत में भी स० 'वर्त्मन्- से सम्बद्ध 'वट्ट- (<*स० 'वर्त-, हिन्दी 'वाट')
"पिशेल (Pischel) द्वारा सम्पादित, हाले (Halle), जर्मनी १८७७-८० । '५० हरगोविन्ददास त्रिकमचन्द शेठ द्वारा सम्पादित, कलकत्ता, वि० स० १९७६-८५। "अपभ्रश-ष्टूडिएन', लाइप्सिश ((Apabhramsa-Studien, Leipzig), १९३७, पृष्ठ ७७-७८ ।
"पिशेल्, 'प्रामाटिक् देर प्राकृत-प्राजेन्, ष्ट्रास्बुर्ग (Pischel, 'Grammatik der PrakritSprachen,' Strassburg), १९००, १२१८-आदि, गाइगर, 'पाली लितरातूर उद् प्राखें' (Gciger, 'Pah Literatur und Sprache')-अग्रेजी अनुवाद डा० वटकृष्ण घोष, कलकत्ता, १९४३, और ६४।
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