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प्रेमी - श्रभिनदन-ग्रथ
दुख हुआ है, उतना असह्य दुख परम प्रिय कर्ण, दुश्शासन आदि के वियोग से भी नही हुआ था । 'पाडवो से विरोध छोड़ कर सधि कर लो,' इस वात को सुनने के लिए ही मानो ब्रह्म ने मुझे ये कान दिये है ।'
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दुर्योधन के व्यक्तित्व को और देखिये । वह कहता है कि कर्ण और दुष्गासन ये दोनो मेरे दो नेत्र या दो भुजाएँ कहे जाते थे । हा । इनके मरने के बाद भी मेरा जीना उचित है ? दुश्शासन के शरीर को देखकर दुर्योधन कहता हैं कि तुमको मारने वाला अव भी जीवित है । उसको विना मारे मैं जी रहा हूँ । क्या यही प्रेम का पुरस्कार है आगे द्रोण आदि के शरीरो को देख कर दुर्योधन मुक्तकठ से उनके पराक्रम की प्रशसा कर स्वाभाविक गुरुभक्ति को व्यक्त करता हुआ उनके नाश में अपना दुर्नय तथा दुरदृष्ट ही कारण है कहकर पश्चात्ताप करता है । अनतर गुरुचरणी मे प्रणाम करके उन्हें प्रदक्षिणा देकर आगे वढता है । इसी प्रकार भीष्म के चरणो मे मस्तक रखकर उनसे भी क्षमा माँगता है । यहाँ पर दुर्योधन की असीम गुरुभक्ति देखिये । श्रागे शत्रुकुमार, श्रद्वितीय पराक्रमी बालक अभिमन्यु के माहस की मुक्तकठ से प्रशसा करता हुआ दुर्योधन हाथ जोडकर प्रार्थना करता है कि मुझे भी इसी प्रकार का वीर मरण प्राप्त हो। इसी का नाम गुणैकपक्षपातिता है ।
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उरुभग की असह्य पीडा में मरणोन्मुख दुर्योधन को देखना कोमल हृदय वालो का काम नही है । इस चितामयी अवस्था मे भी वह अपने व्यक्तित्व को नही छोडता । दुर्योधन अश्वत्थामा मे कहता है कि प्राणो के निकल जाने के पूर्व पाडवो को मार कर उनके मस्तको को लाकर मुझे दिखलाओ। इसमे शान्ति मे मेरे प्राण निकल जायेंगे । श्रश्वत्थामा भ्रातिवश पाडव समझ कर उपपाडवो के मस्तको को दुर्योधन के सामने लाकर रखता है। वह उन मस्तको को सावधानी से देखकर बालहत्यारूपी महापातक के लिये बहुत ही दुखी होता है और इस असावधानता पूर्ण कार्य के लिये अश्वत्थामा को फटकारता है। वस्तुत दुर्योधन महानुभाव है | महाकवि रन्न ने उसे 'महानुभाव' ठीक ही लिखा है । इस प्रकार रन का दुर्योधन प्रारंभ से अंत तक हमारा लक्ष्य बन कर व्यक्तिवैशिष्ठ्य से हम लोगो के साथ अपनी आत्मीयता स्थापित करता है । उसके उदात्त गुणो को देख कर हम उसके दुर्गुणो को भूल जाते है ।
महाभारत के दुर्योधन के मरण से हमें दुख नही होता, पर रन्न के दुर्योधन के सबध में ऐसी बात नही है । यहाँ दुर्योधन के मरण से हमे असीम सताप होता है । यथार्थत 'गदायुद्ध' का दुर्योधन सत्यव्रती, धैयंगाली, वीरागेसर, दैवभक्त, स्नेही, गुरुजनविधेय श्रौर मदुहृदयी है । 'महाभारत' का दुर्योधन - पाडवो के भय से ही वैशपायन सरोवर
जाकर छिपता है, रन्न का दुर्योधन केवल भीष्म के प्राग्रह से मत्रसिद्धि के निमित्त | इसमे तीर्थ-यात्रा के हेतु गये हुए वलराम तथा कृप, कृतवर्मादि की प्रतीक्षा भी एक थी । दुर्योधन के पूर्वकृत जघन्य कृत्यों को प्रयत्नपूर्वक छिपाकर उसके उदात्त गुणो को ही सर्वत्र व्यक्त करते हुए दुर्योधन के सबध में पाठको के मन में व्यसन, गौरव तथा पक्षपात पैदा कर देना रन्न जैसे महाकवि के लिए ही सभव है। वास्तव में कवि ने इन कार्यों को अद्वितीय रूप मे सपन्न किया है । यह विशेषता महाभारत में नही मिलेगी। वहाँ पर दुर्योधन का दोपपुज ही हमारे समक्ष श्राकर खडा होता है ।
महाभारत में हमें सर्वत्र आदि से लेकर अत तक भीम के साहस का ही वर्णन मिलेगा, पर यहाँ पर दुर्योधन के साहस के सामने भीम का साहस फीका पड जाता है । अन्यत्र व्यासादि महर्षियो ने भी दुर्योधन के सबंध मे पक्षपात किया है । वहाँ के वर्णन को पढने से मालूम होता है कि भीम एक ही आघात से दुर्योधन को चकना चूर कर डालेगा, पर यहाँ पर तो राज्यलक्ष्मी तक धर्मराय के पास जाने के लिए उत्सुक नही है । इन सबो को देख कर निश्चय हो जाता है कि दुर्योधन का अभिमान कोरा अभिमान नही है । गदाप्रहार के द्वारा दुर्योधन के उरो को भग करना भीम का अनुचित कार्य था। इतना ही नहीं, रक्त से आद्रीभूत, मरणासन्न चक्रवर्ती दुर्योधन के मुकुट को लात से मारना और भी नीच कृत्य था । हर्ष की बात है कि रन्न का दुर्योधन अत तक क्षात्रधर्म को पालता जाता है। वह किसी की भी शरण में नही जाता